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उपसंहार
स्वतन्त्र दार्शनिक चिन्तन की दृष्टि से भारतीय-दर्शन परम्परा में श्रमणपरम्परा का महत्त्वपूर्ण योगदान है। श्रमण-परम्परा का यह वैशिष्ट्य रहा है कि उसने दर्शन को आस्था की अपेक्षा तार्किक आधार पर प्रस्तुत करने का प्रयत्न किया है । वर्तमान में श्रमण परम्परा के जो दर्शन उपलब्ध हैं उनमें प्रमुख रूप से चार्वाक, बौद्ध और जैन दर्शनों का महत्त्वपूर्ण स्थान है । यद्यपि आज आजीवक आदि श्रमण-परम्परा के कुछ दर्शन अपने सुव्यवस्थित रूप में अनुपलब्ध हैं और सांख्य तथा योग जैसे कुछ दर्शनों को आस्तिक दर्शनों के वर्ग में समाहित करके वैदिक दर्शन परम्परा का ही अंग माने जाने लगा है ।
भारतीय दार्शनिक चिन्तन की जो विविध धाराएँ अस्तित्व में आईं उनके बीच समन्वय स्थापित करने का काम जैनदर्शन ने अपने नयवाद के माध्यम से प्रारम्भ किया था । बौद्ध दर्शन से भिन्न जैनदर्शन का यह वैशिष्ट्य रहा कि जहाँ बौद्ध दार्शनिकों ने अपने से भिन्न दर्शन परम्परा में दोषों की उद्भावना दिखाकर मात्र उन्हें नकारने का काम किया, वहाँ जैन दार्शनिकों ने यद्यपि विभिन्न दर्शन परम्पराओं की समीक्षा तो की, किन्तु उन्हें नकारने के स्थान पर उनमें एकांगी होने का दोष दिखाकर उन्हें परस्पर समन्वित और संयोजित करने का प्रयत्न किया । जैन दार्शनिकों का यह उद्घोष था कि जो भी दर्शन अपने को ही एकमात्र सत्य मानता है एवं दूसरे दर्शनों को असत्य कहकर नकारने का प्रयत्न करता है वह मिथ्यादर्शन है । किन्तु वे ही विभिन्न दर्शन जब विभिन्न अपेक्षाओं के आधार पर एक-दूसरे से समन्वित हो जाते हैं, तो वे सत्यता को प्राप्त कर लेते हैं । प्रत्येक दर्शन अपने से विरोधी मत
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