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________________ नयविचार १८५ १. विधिः द्रव्यार्थिक व्यवहार २. विधिविधिः द्रव्यार्थिक संग्रहनय ३. विद्युभयम् द्रव्यार्थिक संग्रहनय ४. विधिनियमः द्रव्यार्थिक संग्रहनय ५. उभयम् द्रव्यार्थिक नैगमनय ६. उभयविधिः द्रव्यार्थिक नैगमनय ७. उभयोभयम् पर्यायार्थिक ऋजुसूत्र ८. उभयनियमः पर्यायार्थिक शब्दनय ९. नियमः पर्यायार्थिक शब्दनय १०. नियमविधिः पर्यायार्थिक समभिरूढ़ ११. नियमोभयम् पर्यायार्थिक एवंभूतनय १२. नियमनियमः पर्यायार्थिक एवंभूतनय उपरोक्त बारह "अर'' द्वादशार-नयचक्र की अपनी विशिष्टता हैं । विधि एवं नियम शब्द का आर्थ अनुक्रम से सत् का स्वीकार एवं अस्वीकार है । इन दो शब्दों के संयोजन से ही बारह भेद किए गए हैं । इसमें उस युग के समस्त भारतीय दर्शन का समावेश किया गया है। प्रथम चार अर में सत् को नित्य माननेवाले दर्शनों का समावेश किया है । उभयादि चार अर में सत् को नित्यानित्यात्मक माननेवाले दर्शनों का और अन्तिम चार अर में सत् को अनित्य माननेवाले दर्शनों का समावेश किया गया है । इस प्रकार जैनदर्शन में नयों का क्रमिक विकास हुआ है किन्तु द्वादशार-नयचक्र में प्रयुक्त शैली एवं नयों के नाम नयचक्र के पूर्ववर्ती या परवर्ती साहित्य में उपलब्ध नहीं होते। १. तत्र विधिभङ्गाश्चत्वार आद्या उभयभङ्गा मध्यमाश्चत्वारो नियमभङ्गाश्चत्वारः पाश्चात्या यथासंख्यं नित्यप्रतिज्ञाः, नित्यानित्यप्रतिज्ञाः अनित्यप्रतिज्ञाश्च । द्वादशार-नयचक्र-वृत्ति, पृ० ९७७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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