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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
उतने ही नय या नयदृष्टियाँ हो सकती हैं । एवं जितनी ही नयदृष्टियाँ होती हैं। उतने ही पर - दर्शन होते हैं । क्योंकि प्रत्येक दर्शन किसी दृष्टिविशेष को स्वीकार करके वस्तु-तत्त्व का विवेचन करता है? । आचार्य सिद्धसेन का नयों के संदर्भ में यह अति व्यापक दृष्टिकोण परवर्ती जैन-ग्रन्थों में यथावत मान्य रहा है । विशेषावश्यकभाष्य के कर्त्ता जिनभद्र (प्रायः ईस्वी० ५५० -५९४) ने भी नयों के संदर्भ में इस व्यापक दृष्टिकोण को स्वीकार किया है । सिद्धसेन के सन्मतिप्रकरण की "जावइया वयणवहा" गाथा किञ्चित् पाठान्तर के साथ विशेषावश्यकभाष्य में उपलब्ध होती है? । वस्तुतः नयदृष्टि एक बंधी बंधाई दृष्टि नहीं है । इसमें एक व्यापकता रही हुई है और जैन आचार्यों ने इस व्यापकदृष्टि को आधार मान कर अपने-अपने ढंग से नयों का विवेचन भी किया है ।
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द्वादशार - नयचक्र में आगम- प्रसिद्ध नयों के द्विविध वर्गीकरणों को स्वीकार करके उनमें दर्शनयुग के सात नयों का समावेश तो किया ही गया है किन्तु इसके अतिरिक्त जैनदर्शन में अन्यत्र अनुपलब्ध ऐसे विधि, नियम, विधि-विधि आदि बारह नयों का उल्लेख भी किया गया है । उनके द्वारा यह नय द्वादशविध नय वर्गीकरण किस प्रकार से द्रव्यार्थिक और पर्यायार्थिक ऐसे द्विविध और नैगम आदि सात नयों में अन्तर्भावित होता है, यह निम्न तालिका से स्पष्ट होता है
१. जावइया वयणवहा तावइया चेव होंति णयवाया । जावइया णयवाया तावइया चेव पर समया ॥
२. जावन्तो वयणपहा तावन्तो वा नया विसद्दाओ । ते चेव या परसमया सम्मत्तं समुदिया सव्वे ॥ विशेषावश्यकभाष्य, स्वोपज्ञवृत्ति सहित, सं० दलसुख मालवणिया, लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति विद्यामन्दिर, अहमदाबाद - ९, प्रथम संस्करण, १९६८, द्वितीय भाग२७३६, पृ० ५२७.
३. तयोर्भङ्गाः - १ विधिः, २ विधि-विधिः, ३ विधेविधि - नियमम् ४ विधेर्नियम:, ५ विधिनियमम्, ६ विधि-नियमस्य विधिः, ७ विधिनियमस्य विधिनियमम्, ८ विधिनियमस्य नियमः, ९ नियम:, १०, नियमस्य विधिः, ११ नियमस्य विधिनियमम्, १२ नियमस्य नियमः ॥ द्वादशार- नयचक्र, पृ० १०.
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सन्मतिप्रकरण- ३.४७.
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