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________________ उपसंहार १८७ का निरपेक्ष रूप से खण्डन करने के कारण दुर्नय (मिथ्यादर्शन) होता है, किन्तु वही दर्शन अनेकान्तवाद में स्थान पाकर सुनय (सम्यक् दर्शन) बन जाता है । आचार्य सिद्धसेन ने पृथक्-पृथक् दर्शनों को रत्नों की उपमा दी और यह बताया कि वे दर्शन पृथक्-पृथक् रूप में कितने ही मूल्यवान क्यों न हों हार की शोभा को प्राप्त नहीं कर पाते । उन्हें हार की शोभा को प्राप्त करने के लिए एक सूत्र में आबद्ध होना होगा । जैन विचारकों का अनेकान्तवाद विभिन्न दार्शनिक मतवादों को सूत्रबद्ध करने का एक प्रयत्न है । आचार्य मल्लवादी का इस दिशा में एक महत्त्वपूर्ण अवदान द्वादशार नयचक्र के रूप में हमारे सामने है । अनेकान्तवाद के कारण जैनदर्शन में जो विशेषता आयी वह यह है कि जैनदर्शन के अध्ययन के लिए और उसके सम्यक् प्रस्तुतीकरण के लिए अन्य दार्शनिक परम्पराओं का अध्ययन आवश्यक माना गया । । यही कारण था कि भारतीय दर्शन परम्परा के इतिहास में दर्शन संग्राहक ग्रन्थों की सर्वप्रथम रचना जैन परम्परा में ही हुई । जैन दार्शनिकों में आचार्य सिद्धसेन दिवाकर (४ शती ) प्रथम आचार्य हैं, जिन्होंने अपने सुप्रसिद्ध ग्रन्थ सन्मति-प्रकरण में विभिन्न दार्शनिक मतों को समीक्षित और समन्वित करने का प्रयास किया । यद्यपि आचार्य सिद्धसेन के समकालीन बौद्ध दार्शनिकों ने भी विभिन्न दार्शनिक मतवादों की समीक्षा की थी किन्तु उन्होंने मात्र उनमें दोषों की उद्भावना कर उन्हें निरस्त करने का ही प्रयास किया, जब कि आचार्य सिद्धसेन ने स्पष्ट रूप से यह उद्घोषणा की कि जब तक प्रत्येक दर्शन (नय)पृथक्-पृथक् होता है, तब तक वह अपनी ही सत्यता के मिथ्या अभिनिवेश के कारण ही मिथ्या रहता है, किन्तु जब वह अनैकान्तिक और अनाग्राही दृष्टि को स्वीकार कर एक-दूसरे की सापेक्षिक सत्यता को स्वीकार करते हुए उनमें सामंजस्य स्थापित करता है तो वह सम्यक् बन जाता है। इसी क्रम में उन्होंने आगे यह बताया था की सांख्यदर्शन द्रव्यार्थिक-नय को प्रधान मानकर और सौगत-दर्शन पर्यायार्थिक-नय को प्रधान मानकर अपनी विवेचना प्रस्तु करता है। न्याय-वैशेषिक दर्शन में उक्त दोनों नयों को अपेक्षा-भेद से और विषयभेद के आधार पर प्रधानता दी जाती है । इस प्रकार एक समन्वय Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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