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शब्दार्थ सम्बन्ध की समस्या चैतसिक है।
शब्दाद्वैतवादी पक्ष के सिद्धान्त को स्थापित करते हुए आचार्य मल्लवादी ने भर्तृहरिकृत वाक्यपदीय ग्रन्थ की कारिकाएँ उद्धृत की हैं । कहा गया है कि अभिजल्पत्ववान शब्द ही शब्दार्थ है । शब्द का अर्थ के साथ तादात्म्य प्रचलित होने से तत् तत् शब्द का तत् तत् अर्थ है ऐसा बोध होता है, इसी को अभिजल्प माना गया है। यहाँ उक्त वाद का कहना है कि शब्द का अर्थ के साथ तादात्म्य है और अर्थ में पृथक् शक्ति होती नहीं है वह शब्दाधीन होते हैं । शब्द में ही शक्ति है, अर्थ शक्तिरहित होता है ।२ ।
उक्त वाद की समीक्षा करते हुए आचार्य मल्लवादी ने प्रश्न उठाया है कि आप यह मानते हैं कि वाह्यार्थ से पृथक् शक्ति नहीं है, वह शब्दाधीन है तब तो आपने स्वयं ही अपने कथन द्वारा शब्द से भिन्न शक्ति नाम की वस्तु या शक्तिवाले अर्थ की सत्ता को स्वीकार कर लिया है ।३ यदि आप शब्द और अर्थ में भेद नहीं मानेंगे तब भी अनेक दोष आयेंगे । यथा शब्द द्वारा अर्थ का बोध भेद मानने पर ही सम्भव है अभेद मानने पर शब्द का अर्थ के साथ अभेद हो जाने से बोध नहीं हो पायेगा । आधार आधेय रूप भेद होने के कारण ही उसमें इदं शब्द वाच्यत्व सिद्ध होता है । वस्तु शब्द शक्ति का आधार है । शब्द की व्याख्या करते हुए कहा गया है कि योग्योऽनुरूपः शब्दः । अर्थात् योग्य के अनुरूप हो वह शब्द है, ऐसा कहने पर योग्य शब्द से वाह्यार्थ की सिद्धि होती है, उस अर्थ के अनुरूप ही शब्द का प्रयोग होता है। इस प्रकार शब्द ही केवल तत्त्व है ऐसा मानना युक्तिसंगत नहीं है। शब्द का प्रयोग भी अर्थ के अनुरूप ही होता है । अर्थ के अनुरूप शब्द प्रयोग न माना जाय तब तो वचन की प्रवृत्ति ही निरर्थक हो जायेगी । इतना ही नहीं यह भी प्रश्न उठेगा कि अर्थ के अभाव में शब्द द्वारा किसकी विवक्षा होगी?
वाक्यपदीय-२. १२७.
१. शब्दो वाप्यभिजल्पत्वमागतो याति वाच्यताम् । २. सो यमित्यभिसंबंधात् रूपमेकीकृतं यदा । __ शब्दस्यार्थेन तं शब्दमभिजल्पं प्रचक्षते ॥ ३. तत्र वस्तु तावदनेनैव त्वद्वचनेन शब्दादन्यत् सिद्धम् । ४. वही० पृ० ५८३.
वही० २.१२८. द्वादशारं नयचक्र० पृ० ५८३.
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