________________
१६६
तत्त्व के साथ जुड़ती है तब यह प्रश्न और भी जटिल बन जाता है
1
द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
तैत्तरीय उपनिषद् में परम सत्ता के निर्वचन को लेकर कह दिया था कि 'य तो वाचो निर्वर्तते' वाणी वहाँ से लौट आती है । उसे वाणी का विषय नहीं बनाया जा सकता है । कठोपनिषद् कहता है कि यह परम तत्त्व 'नैव वाचा न मनसा प्राप्तुं शक्य' अर्थात् वह वाचा के द्वारा या मन के द्वारा नहीं समझा जा सकता है । माण्डूक्योपनिषद् में सत्ता को अदृष्ट, अव्यवहार्य, अग्राह्य, अलक्षण, अचिन्त्य, अवाच्य कहा गया है । ३
यही बात हमें प्राचीन जैन आगम में भी मिलती है । आचारांग कहता है कि वह (परम तत्त्व) ध्वन्यात्मक किसी भी प्रवृत्ति का विषय नहीं है । वाणी उसका निर्वचन करने में समर्थ नहीं है। तर्क की वहाँ पहुँच नहीं है । मार्ग उसे ग्रहण करने में समर्थ नहीं है अर्थात् वह विचार और बुद्धि का विषय नहीं है । उसे किसी उपमा के द्वारा भी समझाया नहीं जा सकता है । वह अनुपम, अरूपी सत्ता है । उस अपद का कोई पद नहीं है अर्थात् ऐसा कोई पद, शब्द नहीं है कि उससे उसका निरूपण किया जा सके । इस प्रकार सामान्य रूप से भारतीय दर्शन में और विशेष रूप से जैनदर्शन में वस्तुतत्त्व या सत्ता को अवक्तव्य या अवाच्य बताया गया है ।
I
सत्ता की इस अवाच्यता या अवक्तव्यता में अवाच्य या अवक्तव्य का अर्थ है यह भी विशेषरूप से विचारणीय है । अवाच्य, अनिर्वचनीय, अवक्तव्य ये शब्द सामान्यतया प्राचीनकाल से ही प्रयुक्त किए जा रहे हैं । किन्तु विभिन्न कालों में और विभिन्न विचारकों की दृष्टि में इसके तात्पर्य को लेकर भिन्नता रही है । अवक्तव्य शब्द के अर्थ-विकास की दृष्टि से पं० दलसुखभाई मालवणिया, ५ डॉ० पद्मराजे ने विशेषरूप से विचार किया है ।
१. तैत्तिरीयोपनिषद् २।४
२. कठोपनिषद् १.२.२०
३. माण्डूक्योपनिषद् ७
४. आचारांगसूत्र १.५.६
५. आगमयुग का जैनदर्शन, पृ० ९५ - १०१
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org