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________________ सत्ता की वाच्यता का प्रश्न १६७ डॉ० पद्मराजे ने इस अर्थ-विकास को चार चरणों में विभक्त किया है ।१ । अवक्तव्यता की अर्थ भी इस सामान्य चर्चा के पश्चात् हम इस प्रश्न पर विचार करेंगे कि अवक्तव्यता का जैन परम्परा में क्या अर्थ रहा है । इस सम्बन्ध में आचारांग के पूर्वोक्त उद्धरण की दृष्टि से विचार करें तो वहाँ मुख्य रूप से यही माना गया है कि वस्तु स्वरूप कुछ ऐसा है कि उसे हमारी सीमित शब्दावली भाषाशैली या वाणी का विषय नहीं बनाया जा सकता। यहाँ शब्द की अपने अर्थ की वाच्य सामर्थ्य की सीमितता को देखते ही अवक्तव्यता की चर्चा हुई है। आ० मल्लवादी के पूर्ववर्ती आचार्यों में जिन्होंने इस अवक्तव्यता या अवाच्यता की अवधारणा पर विशेष विचार किया है उनमें आचार्य सिद्धसेन दिवाकर और आ० समन्तभद्र का नाम प्रमुख है। इन दोनों आचार्यों ने वस्तुतत्त्व की अवक्तव्यता का विचार करते हुए यह प्रश्न खड़ा किया है कि क्या वस्तुतत्त्व निरपेक्ष रूप से अवक्तव्य है या सापेक्ष रूप से अवक्तव्य है ? आचार्य समन्तभद्र ने आप्तमीमांसा में इस समस्या को उठाते हुए इस बात पर बल दिया है कि वस्तुतत्त्व की अवक्तव्यता निरपेक्ष न होकर सापेक्ष ही है । वे एकान्त अवक्तव्यता का खण्डन करते हुए कहते हैं कि अवाच्य एकान्त भी नहीं बन सकता क्योंकि अवाच्य एकान्त में भी यह अवाच्य है। ऐसे वाक्य का प्रयोग नहीं किया जा सकतार दूसरे शब्दों में यदि तत्त्व सर्वथा अवाच्य है तो फिर तत्त्व का प्रतिपादन किसी भी रूप में सम्भव नहीं होगा क्योंकि जब हम अवाच्य कहते हैं तो भी उसे वाणी का विषय वश ही लेते हैं ।३ यदि तत्त्व सर्वथा अवाच्य होता तब उसे किसी भी शब्द से वाच्य नहीं बनाया जा सकता और ऐसी स्थिति में तत्त्व अवाच्य है यह प्रतिपादन भी सम्भव नहीं होगा । क्योंकि ऐसा कहने से तत्त्व अवाच्य न होकर 'अवाच्य' शब्द का वाच्य तो हो ही जाता है । तत्त्व अवाच्य है यह भी १. जैन थ्योरीज ऑफ रियलिटी एण्ड नोलेज २. विरोधान्नोभयैकात्म्यं स्याद्वादन्यायविद्विषाम् । अवाच्यतैकान्ते प्युक्तिर्नावाच्यमिति युज्यते ॥ २. सर्वान्ताश्चेदवक्तव्यास्तेषां किं वचनं पुनः । संवृत्तिश्चेन्मृषैवैषा परमार्थविपर्ययात् ।। आप्तमीमांसा० श्लो० ५५ वही० श्लो० ४९ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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