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________________ १६८ द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन एक प्रकार की वाच्यता है । यदि तत्त्व एकान्त रूप से अवाच्य है तब ऐसी स्थिति में किसी भी प्रकार का शब्द प्रयोग सम्भव नहीं होगा । यदि हम यह भी कहते हैं कि तत्त्व अवाच्य है तो उसे वाणी का विषय तो बना ही लेते हैं। तत्त्व की अवच्यता का कथन भी उसकी वाच्यता का ही सूचन करता है। इस प्रकार हम देखते हैं कि आचार्य समन्तभद्र अपने ग्रन्थ आप्तमीमांसा में इस बात पर विशेष बल देते हैं कि तत्त्व को सर्वथा अवक्तव्य मानना यह भी युक्तिसंगत नहीं है। यही प्रश्न सिद्धसेन ने अपने ग्रन्थ सन्मति-तर्क में उठाया है । सन्मति-तर्क में उन्होंने भी समन्तभद्र की भाँति एकान्त अवाच्यता का निषेध करके तत्त्व की कथञ्चित अवाच्यता या कथञ्चित अवक्तव्यता का प्रतिपादन किया है । संक्षेप में कहें तो जैन आचार्यों का प्राचीनकाल से ही यह मन्तव्य रहा है कि तत्त्व को एकान्त रूप से अवाच्य मानना या एकान्त रूप से वाच्य मानना दोनों ही मत युक्तिसंगत नहीं हैं । जैनदृष्टि सापेक्ष अवक्तव्यता को स्वीकार करती है निरपेक्ष अवक्तव्यता को नहीं। वह यह मानती है कि वस्तुतत्त्व पूर्णतया अवक्तव्य भी नहीं है और पूर्णतया वक्तव्य भी नहीं है । वह कथञ्चित वक्तव्य है और कथञ्चित अवक्तव्य है । क्योंकि उसके अनुसार यदि हम वस्तुतत्त्व को पूर्णतया अवक्तव्य या अनिर्वचनीय मान लेंगे तो भाषा और विचार का मार्ग ही अवरुद्ध हो जायेगा । उनकी सार्थकता समाप्त हो जायेगी । दूसरी ओर यदि उसे समग्रतः निर्वचनीय मान लिया जायेगा तो यह बात भाषा की सीमितता और आनुभविक सत्यता से बाधित होगी । शब्दों में अपने विषय की वाच्यता-सामर्थ्य तो है किन्तु वह आंशिक या सीमित ही है । अतः जैन आचार्य वस्तुतत्त्व की अनिर्वचनीयता या अवाच्यता को स्वीकार करते हुए भी पूर्णतया अनिर्वचनीय या अवाच्य नहीं मानते । वस्तु सापेक्ष रूप से अनिर्वचनीय और सापेक्ष रूप से निर्वचनीय है। दूसरे शब्दों में वह अंशत: अनिर्वचनीय है और अंशत: निर्वचनीय है । जैन न्याय में सप्तभंगी का विकास हुआ है उसमें भी हम इसी सापेक्षित अवक्तव्यता और सापेक्षित वक्तव्यता का दृष्टिकोण पाते हैं । यहाँ हम इस चर्चा के सम्बन्ध में अधिक १. अत्यंतरभूएहि य णियएहि य दोहि समयमाईहिं । वयणविसेसाईयं दव्वमवत्तव्वयं प इ॥ सन्मतिप्रकरण० १.३६ २. आगमयुग का जैनदर्शन, पृ० ९३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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