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ईश्वर की अवधारणा
आचार्य ने ईश्वरवादी की ओर से उक्त आशंका का समाधान करते हुए कहा है कि ईश्वर द्वारा संपादित होने के कारण उक्त आशंका अयुक्तिक है । कहने का मतलब यह है कि कर्म करनेवाले पुरुष का इतना सामर्थ्य नहीं कि वह स्वकृत कर्मों की सफलता के लिए मूलभूत साधनों का सम्पादन कर सके । मूलभत साधन हैं-वर्तमान विश्व के रूप में पृथ्वी आदि भूतों की रचना पुरुष उन्हीं के आधार पर स्वकृत कर्मों के फलों को प्राप्त कर पाता है। विश्व की यह रचना ईश्वराधीन है । इस प्रकार पुरुष के कर्मों का फल ईश्वराधीन है। दूसरा अनन्त पुरुषों के अनन्त विविध कर्मों का लेखा-जोखा किसी एक पुरुष के ज्ञान में न होने से उसकी व्यवस्था का होना संभव नहीं। केवल सर्वज्ञ ईश्वर के ज्ञान में अनन्त कर्मों का लेखा-जोखा कहना सम्भव है। उसी के आधार पर पुरुषों के कर्मानुरूप फलों की व्यवस्था होती है । इस प्रकार कर्मफलों का सम्पादन ईश्वर ही करता है यह जानना होगा ।
द्वादशारनयचक्र में एक और प्रश्न उठाया गया है कि आप यह कहेंगे कि प्रधान परमाणु आदि में प्रवृत्ति किसी चेतन तत्त्व के कारण ही होती है तब तो ईश्वर में जो प्रवृत्ति होती है या ईश्वर स्वयं जो प्रवृत्ति करता है वह भी किसी और चेतन तत्त्व से अधिष्ठित माननी पड़ेगी । ऐसा मानने पर अनवस्था दोष आयेगा । इसका समाधान करते हुए कहा गया है कि यहाँ अचेतन तत्त्व के प्रवृत्ति की चर्चा है । अचेतन तत्त्व जब भी प्रवृत्त होता है तो चेतन तत्त्व को अधिष्ठित होकर ही होता है और दूसरी बात ईश्वर तो स्वयं चेतन स्वरूप है अतः उसमें चेतनारोपित का प्रश्न ही नहीं उठता । तब दूसरा प्रश्न यह भी उठाया गया है कि आप अचेतन तत्त्व को पुरुषाधिष्ठित मानते हैं तो एक ओर आपत्ति आयेगी वह यह की सभी चेतन तत्त्व यानि कि मनुष्यादि भी ईश्वर ही बन जायेंगे ।२
१. द्वादशारं नयचक्रम्, पृ० ३२९-३३०. २. स्थित्वाप्रवृतचेतनानधिष्ठितेश्वरवदनेकान्त इति चेत् ईश्वरस्य वा चेतनाधिष्ठितता तस्यापि
चान्याधिष्ठिततेत्यनवस्था । न, चेतनाधिष्ठितप्रवृतित्व-साध्यधर्मत्वात् । देवदत्तादयस्तर्हि चेतनेश्वरानधिष्ठिताः प्रवर्तन्ते सोऽपि वेश्वरस्तद्वच्चेतनान्तराधिष्ठितः । उच्यते व त्वया चेतनानामपीश्वराधिष्ठानं पुरुषवादनिरसनाय...... । द्वादशारं नयचक्रम्, पृ० ३३०.
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