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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
भी उसे दुःखी होना पड़ता है और कभी-कभी पुरुष अशुभ कर्म करने पर भी शुभ या सुख को प्राप्त करता है । इस प्रकार कर्म और फल में विसंवाद होने के कारण यह अनुमान होता है कि पुरुष के कर्मों के फल-प्राप्ति की सिद्धि अन्य किसी के अधीन है । जिसके अधीन है वह ईश्वर है । ईश्वरेच्छा के बिना पुरुष के कर्म विफल रहते हैं और ईश्वरेच्छा होने पर बिना कर्म ही फलोत्पत्ति होती है । इसलिए कार्य जिस ईश्वर के अधीन हैं, उसी को कार्यमात्र का कारण मानना चाहिए और कहा है कि पुरुष कर्मों के फलों की सिद्धि जगद्रचना के बिना सम्भव नहीं और जगत् रचना ईश्वराधीन है। अत: ईश्वर को सब कार्यों का कारण मानना उपयुक्त है।
द्वादशारनयचक्र में एक और प्रमाण देते हुए कहा है कि प्रधान परमाणु आदि तत्त्व में प्रवृत्ति किसी चेतन तत्त्व के कारण ही हो सकती है क्योंकि प्रधान, परमाणु आदि तत्त्व अचेतन हैं । अचेतन तत्त्व स्वयं प्रवृत्ति नहीं करेगा यथा लकड़ी आदि । अतः अचेतन में प्रवृत्ति तभी हो सकती है जब वह अचेतन कोई चेतन-तत्त्व से अधिष्ठित हो । यह अधिष्ठाता ईश्वर ही है ।
ईश्वरवाद की उपरोक्त तार्किक स्थापना में आनेवाली सम्भावित आपत्तियों का उत्तर नयचक्र में निम्न प्रकार से दिया गया है
ऊपर बताया गया है कि कर्मफल ईश्वर के अधीन है। तब यह प्रश्न उठ सकता है कि पुरुष स्वकृत कर्म के फल की प्राप्ति ईश्वराधीन मानी जाय तब कभी-कभी बिना कर्म ही फलप्राप्ति होनी चाहिए । यदि ऐसा मान लिया जाए तब अकृत कर्म की फलप्राप्ति का दोष आयेगा एवं फलप्राप्ति में विविधता व न्यूनाधिकता होने से ईश्वर पर अन्यान्य एवं पक्षपात का दोष आरोपित होगा, किन्तु ईश्वर तो ऐसा नहीं है, अतः ईश्वर को कार्य का कारण मानना व्यर्थ है।
१. इश्वर: कारणाम्; पुरुषकर्माफल्यदर्शनात् ॥
पुरुषो यं समीहमानो नावश्यं समीहाफलं प्राप्नोति, तेनानुमीयते, पराधीनपुरुषस्य कर्मफलाराधनम् इति, यदधीनं स ईश्वरः । तस्मादीश्वरः कारणमिति ।।
न्यायदर्शनम्, ईश्वरप्रकरण, टीका- १९, पृ० २८३. २. द्वादशारं नयचक्रम्, पृ० ३२८-२९.
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