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________________ नवम अध्याय आत्मा की अवधारणा आत्मा की अवधारणा समस्त भारतीय चिन्तन का प्रमुख विषय है । सामान्यतया आत्मा से हमारा अभिप्राय चैतन्य संज्ञा से है । भारतीय दर्शनों में चार्वाक और बौद्धों को छोड़कर प्रायः सभी दर्शनों ने नित्य आत्म-तत्त्व की अवधारणा को स्वीकार किया है । चार्वाक चाहे आत्मा को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकार नहीं करते फिर भी वे चेतना की उपस्थिति से इन्कार नहीं करते हैं । उनके विरोध का मुख्य विषय किसी नित्य आत्म-सत्ता की स्वीकृति को लेकर है । बौद्ध भी भले ही नित्य आत्म-तत्त्व को स्वीकार न करते हों किन्तु चेतना प्रवाह के रूप में चित्त सन्तति की अवधारणा को वे अवश्य मानकर चलते हैं ।२ मात्र इतना ही नहीं जहाँ चार्वाक शरीर से ही चैतन्य संज्ञा की उत्पत्ति को मानकर यह समझते हैं कि शरीर के विनाश के साथ-साथ उस शरीर के साथ जुटी हुई चेतना भी नष्ट हो जाती है । इस प्रकार वे पुनर्जन्म की अवधारणा से इन्कार करते हैं वहाँ बौद्ध दार्शनिक नित्य १. चतुर्थ्यः खलु भूतेभ्यश्चैतन्यमुपजायते । किण्वादिभ्यः समेतेभ्यो द्रव्येभ्योमदशक्तिवत् ।। सर्वदर्शन सं० पृ० ५ २. बौद्धै 'सर्वं क्षणिकम्' इति प्रतिज्ञाय.....संतान कल्पना । द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ५ ३. यावज्जीवेत्सुखं जीवेत्तावद्वैषयिकं सुखम् । भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥ - षड्दर्शन समुच्चय० पृ० ४५३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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