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सामान्य और विशेष की समस्या
१४५ का कहना है कि अन्य दार्शनिकों ने सामान्य का जो लक्षण बताया है वह प्रत्यक्ष का विषय नहीं है । अत: उन अवधारणाओं का सामान्य के रूप में स्वीकार न करके सामान्य की जो व्यवहारिक दृष्टि है उसे स्वीकार करना ही उचित है। क्योंकि सामान्य का यह व्यापकरण सम्मत भी है ।
द्रव्य, क्षेत्र, काल और भाव को जो भवन् अर्थात् परिवर्तन वह सब एक ही धर्मात्मक होने के कारण एकात्मक है । ऐसी स्थिति में अन्य दर्शनों के द्वारा मान्य सामान्य का लक्षण घट नहीं सकता है क्योंकि सर्व सामान्य में अन्य का अभाव होने से अन्यापोह स्वरूप सामान्य संभव नहीं हो सकता है । पुनः एकात्मक होने के कारण अर्थात् मूल वस्तु में भिन्नता न होने के कारण सदृश्यता की अवधारणा का अभाव रहता है । जब दो वस्तुएँ अलग-अलग हैं ही नहीं तो फिर सादृश्य लक्षण सामान्य का अभाव हो जायेगा क्योंकि सादृश्य दो भिन्न-भिन्न वस्तुओं में ही संभव है । यदि हम यह मानते हैं कि सब एक ही धर्मात्मक है तब ऐसी स्थिति में समानता का अभाव हो जायेगा साथ ही परस्पर भिन्न वस्तुएँ न रहने पर जो अनुवृत्ति रूप सामान्य है उसका भी अभाव हो जायेगा ।२
निष्कर्ष रूप से हम यह कह सकते हैं कि आ० मल्लवादी की दृष्टि में सामान्य सम्बन्धी कोई भी अवधारणा पूर्णतः निर्दोष नहीं हो सकती । अन्य के अभाव में अन्यापात सामान्य संभव नहीं है । एकात्मकता मानने पर सादृश्य लक्षण सामान्य की व्याख्या संभव नहीं और समानता का अभाव मानने पर अनुवृत्ति रूप सामान्य की अवधारणा सत्यस्थित नहीं होती । सामान्य का वस्तु से भेद, अभेद, अभाव, एकान्तरूप से कुछ भी मानें वह निर्दोष नहीं माना जाता है।
१. वही० टीका० पृ० १८ २. वही० पृ० १९
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