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________________ १४४ द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन सामान्य का स्वरूप नष्ट हो जायेगा । यदि ऐसा मान भी लिया जाय की पदार्थ में और सामान्य में कोई भेद नहीं है क्योंकि लोकव्यवहार में राहोः शिरः ऐसा प्रयोग होता है अर्थात् अभेद के सम्बन्ध में भेद का व्यवहार किया जाता है किन्तु ऐसा मानने पर पुनः सर्वसर्वात्मकता का सिद्धान्त मानना होगा और ऐसी स्थिति में सामान्य और विशेष ये दोनों अवधारणाएँ निरर्थक ही सिद्ध होंगी । दूसरी बात यह है कि केवल सामान्य को मानने पर विशेष का अभाव हो जायेगा और विशेष का अभाव हो जाने पर यह इसके समान या यह इसकी जाति का है ऐसा व्यवहार भी नहीं बन पायेगा । वास्तविकता तो यह है कि सामान्य और विशेष की अवधारणाएँ परस्पर सापेक्ष हैं । सामान्य विशेष की अपेक्षा रखता है और विशेष सामान्य की । इन दोनों में परस्पर अविनाभाव सम्बन्ध है अत: एक को स्वीकार करने पर दूसरे को भी स्वीकार करना होगा एवं एक पक्ष को स्वीकार करने पर दूसरे पक्षों की आपत्तियों का सामना करना ही पड़ेगा । यदि सामान्य को अपने से भिन्न दूसरे वर्ग या पर विषय में स्थित मानते हैं तो वह समान जाति के पदार्थों में न रहने के कारण सामान्य, सामान्य ही नहीं रह जायेगा क्योंकि वह भिन्न-भिन्न असमान जाति के पदार्थों में स्थित होता है ।२ संक्षेप में न्याय-वैशेषिक सम्मत अनुवृत्ति सामान्य, सांख्य-सम्मत सादृश्य सामान्य और बौद्ध-सम्मत व्यावृत्ति सामान्य को न मानकर स्व और पर दोनों वर्गों में सामान्य की उपस्थिति मानने से सामान्य की अवधारणा का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता है । यद्यपि यह एक व्यवहारवादी पक्ष अवश्य है क्योंकि व्यवहारवादियों के अनुसार सामान्य का लक्षण ही यही है कि दूसरों के सामन है वही सामान्य है ।३ व्यवहार में भी यही बात देखी जाती है अतः सामान्य का लक्षण लौकिकता के अनुसार करना ही ठीक है। आ० मल्लवादी १. सामान्यविशेषयोश्च सम्बन्धित्वादेकतराभ्युपगमेऽन्यतरस्य । आवश्यापेक्ष्यत्वात् सामान्याभ्युपगमे नियमपक्षापत्तिरपि ॥ द्वादशारं नयचक्रं, पृ० १४ २. परविषयतायामपि असमानावस्थानाद-सामान्यम् । किं कारणम् ? अनवधृतैकतर कारणत्वाद् द्रव्यादीनाम् । वही० पृ १४ ३. परेण समानेन भूयते । द्वादशारं नयचक्रं, १८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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