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________________ सामान्य और विशेष की समस्या १४३ दूसरे शब्दों में सामान्य और विशेष की वस्तु से स्वतन्त्र अस्तित्व की न्याय-वैशेषिक दर्शन की अवधारणा तार्किकरूप से निर्दोष नहीं कही जा सकती है। सांख्यदर्शन में वस्तु मात्र सर्वसर्वात्मक है अत: घटादि वस्तु सामान्यरूप ही है । आ० मल्लवादी यहाँ प्रश्न उपस्थित करते हैं कि सामान्य अपने स्वविषय अर्थात् अपनी ही जाति के सदस्यों में रहनेवाला है या दूसरी जाति के पर विषय द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव रूप भी है ? दूसरे शब्दों में सामान्य अपनी अपेक्षा से सामान्य है या पर की अपेक्षा से सामान्य है ? यदि सांख्यदर्शन के अनुसार यह माना जाता है कि प्रकृति एक ही है और वही घट-पटादि नाना रूप में परिणत होती है और वही प्रकृति सामान्य है ? तो ऐसी स्थिति में घटपटादि की भिन्नता समाप्त हो जायेगी। दूसरे शब्दों में सामान्य का जो जातिगत् स्वरूप है वही नष्ट हो जायेगा क्योंकि सांख्यदर्शन परिणाम और परिणामी में अभेद मानता है साथ ही सभी वस्तुओं की उत्पत्ति और लय प्रकृति में मानता है। ऐसी स्थिति में सब प्रकृति ही है अर्थात् सर्व एक रूप है यह मान्यता प्रतिफलित होगी किन्तु ऐसा मानने पर सर्व एकरूप हो जायेगा और सर्व एकरूप होने पर सामान्य का स्वरूप ही नष्ट हो जायेगा क्योंकि विशेषों के अभाव में और विभिन्न जातिओं के अभाव में सामान्य का कोई अर्थ ही नहीं रह जायेगा । आ० मल्लवादी इसी तर्क को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि यदि ऐसा माना जाए कि घटादि पदार्थों में सामान्य अभेद से रहता है तो प्रश्न यह होगा कि क्या सामान्य अपनी जाति अर्थात् स्वस्वरूप को प्राप्त होकर रहता है ? या स्व और पर वर्गों के अपनी और अपने से भिन्न जाति के सभी पदार्थों में सामान्य स्वरूप को प्राप्त होकर रहता है ? यदि उसे अपनी जाति के और अपने से भिन्न जाति के अर्थात् दोनों ही प्रकार के पदार्थों में स्थित मानेंगे तो फिर सामान्य का स्वरूप ही नष्ट हो जायेगा और यदि उसे अपनी जाति के व्यष्टियों में स्थित माना जायेगा तो फिर उसकी एकरूपता की अर्थात् प्रकृति की एकरूपता की क्षति हो जायेगी । यदि हम सामान्य को अलग-अलग रूप से प्रत्येक व्यष्टि में स्थित मानते हैं तो भी सामान्य के वस्तुरूप बनने पर १. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० १३-१४ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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