SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 159
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४२ द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन सामान्य- विशेष भी एक-दूसरे से न तो पूर्णतः भिन्न हैं और न तो अभिन्न ही, वैचारिक स्तर पर वे भिन्न होते हुए भी सत्तात्मक स्तर पर अभिन्न ही हैं । १ आचार्य मल्लवादी क्षमाश्रमण ने सामान्य और विशेष की वस्तु-निरपेक्ष स्वसत्ता की न्याय-वैशेषिक दर्शन की अवधारणा की समीक्षा की है। वे प्रश्न उठाते हैं कि यदि सामान्य और विशेष को हम वस्तु-निरपेक्ष स्वतन्त्र सत्ता के रूप में स्वीकार करते हैं तो सामान्य को व्यापक मानना होगा। क्योंकि यदि सामान्य को व्यापक नहीं मानेंगे तो प्रत्येक व्यक्ति में अलग-अलग सामान्य होने से वह विशेष हो जायेगा । आ० मल्लवादी इसी समस्या के प्रति प्रश्न उठाते हुए कहते हैं कि वह सामान्य अपनी जाति के घटादि व्यष्टि में रहता है या दूसरी जाति के पटादि व्यष्टि में भी रहता है ? यदि सामान्य अपनी जाति के सभी में व्यष्टि में व्यापक है ऐसा माना जायेगा तो उस जाति की सभी व्यष्टियाँ एक हो जायेंगी अर्थात् एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति का और एक महिष से दूसरे महिष का अन्तर ही नहीं रह जायेगा । यदि यह मानें कि एक सामान्य सभी व्यष्टियों में अलग-अलग रहता है तो वह नानात्व या अनेकता को प्राप्त हो जायेगा तब फिर सर्व में एक और एक में सर्व का दोष आयेगा । दूसरे शब्दों में न्यायवैशेषिकों को सांख्य का मत स्वीकार करना पड़ेगा और इस प्रकार उनकी सामान्य सम्बन्धी अपनी अवधारणा में विरोध आ जायेगा |२ यदि इसके विपरीत यह माना जाए कि अनेक विषयों में रहनेवाले सामान्य अलग-अलग हैं तब भी तार्किक दोष आयेगा । क्योंकि यदि सब व्यष्टियों में अलग-अलग सामान्य हैं तो फिर घटादि एक ही जाति की वस्तुएँ एकरूप नहीं रह पायेंगी क्योंकि प्रत्येक व्यष्टि में अलग-अलग सामान्य होने से उनमें सामान्य का या जाति का ही अभाव हो जायेगा और सामान्य के अभाव में उनके आत्मत्व या स्वस्वरूप का भी अभाव मानना पड़ेगा । इस प्रकार वस्तु से पृथक् सामान्य को स्वीकार करने पर तार्किकरूप से अनेक समस्याएँ उत्पन्न होंगी । ३ १. जैनभाषा दर्शन० पृ० ४४-४६ २. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ११-१२ ३. वही, पृ० १२-१३ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy