________________
सामान्य और विशेष की समस्या
१४१ समन्वय के परिणाम स्वरूप तीन प्रकार के दृष्टिकोण सामने आए । न्यायवैशेषिकों ने सामान्य और विशेष को सत्भाव, किन्तु उन्हें एक-दूसरे से पृथक् स्वीकार किया अर्थात् उनमें परस्पर भेद की कल्पना की । इसके विपरीत सांख्यों ने सत्ता में व्यष्टि और समष्टि दोनों को स्वीकार करते हुए भी उनमें परस्पर अभिन्नता को स्वीकार किया और यह कहा कि व्यष्टि और समष्टि एक-दूसरे से विविक्त नहीं हैं । वे अभिन्न हैं । इन दोनों मतों के बीच पुनः एक समन्वय का प्रयास हुआ जिसके परिणाम स्वरूप मीमांसकों का भिन्नाभिन्नवाद सामने आया । मीमांसकों ने सामान्य और विशेष दोनों को स्वीकार तो किया ही किन्तु उन दोनों को एकात्मक रूप से न तो भिन्न माना और न अभिन्न ही ।
जैनदर्शन की विशेषता यह रही है कि उन्होंने सामान्य और विशेष के स्वतन्त्र अस्तित्व तथा उनके परस्पर भिन्नत्व, अभिन्नत्व और उभयत्व को अपने अनेकान्तवादी दृष्टिकोण से समीक्षा कर सभी की सापेक्षता को स्पष्ट किया । उन्होंने इस बात को स्पष्ट किया की सामान्य और विशेष दोनों वस्तुतत्त्व से पृथक् सत्ता नहीं हैं अपितु उस सत्ता को समझने के विविध आयाम हैं ।१ प्रो० सागरम जैन का कथन है कि सामान्य और विशेष चाहे विचार की दृष्टि से पृथक्-पृथक् हों किन्तु आनुभविक जगत् में पृथक्-पृथक् नहीं पाये जाते हैं । व्यक्ति से भिन्न न तो व्यक्ति या सामान्य की सत्ता है और न तो सामान्य से रहित किसी व्यक्ति की सत्ता है । मनुष्य-मनुष्य से पृथक् नहीं देखा जाता है और न कोई ऐसा मनुष्य ही है जो मनुष्यत्व से रहित होता हो । सत्ता या अस्तित्व सामान्य-विशेषात्मक है, इस प्रकार सामान्य और विशेष विचार की दृष्टि से एक-दूसरे से पृथक् होकर भी अनुभूति के स्तर पर अथवा अपने अस्तित्व की दृष्टि से वे एक-दूसरे से पृथक् नहीं पाए जाते हैं । और इसी लिए हमारे शब्द भी सामान्य विशिष्ट विशेष के ही ग्राहक होते हैं । 'गामानय' इस शब्द को सुनकर कोई श्रोता गोत्वान्वित गो विशेष को ही खोजता है और न गोविशिष्ट को खोजता है । इस प्रकार वस्तु-सत् न तो सामान्य है और न विशेष अपित सामान्य-विशेष उभयात्मक है साथ ही ये
१. स्वतो नुवृत्तिव्यतिवृत्तिभाजो, भावान भावान्तर नेयरूपाः ।
स्याद्वादमंजरी० पृ० १६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org