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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन दोनों पक्ष स्वीकार करते हैं । किन्तु सांख्यों की विशेषता यह है कि वे सामान्य और विशेष को सत्ता से अभिन्न ही मानते हैं । आलोच्य ग्रन्थ द्वादशार नयचक्र में सांख्यों के इस दृष्टिकोण का उल्लेख सर्व सर्वात्मक के रूप में किया गया है। वे व्यक्ति अर्थात् परिणाम या विकार का प्रकृति या सामान्य से अभेद ही मानते हैं । इस प्रकार सामान्य और विशेष में विशेष की सत्ता का स्वीकार करते हुए भी सांख्य दार्शनिक उसमें अभेद की कल्पना करते हैं।२ भेद अभेद से पृथक् नहीं है या विशेष सामान्य से पृथक् नहीं है ।
इस प्रकार नैयायिकों के भिन्न सामान्यवाद के विरोध में सांख्यों का अभिन्न सामान्यवाद खड़ा हुआ है । मीमांसकों की स्थिति इस सम्बन्ध में इन दोनों ही विचारधाराओं से भिन्न है। मीमांसकों का भट्ट सम्प्रदाय सामान्य और विशेष का जाति और व्यक्ति में भेदाभेद मानता है। उसका कहना है कि जाति और व्यक्ति एक-दूसरे से पृथक् अपना अस्तित्व नहीं रखते हैं । किन्तु उसका अर्थ यह भी नहीं कि वह पूर्णतः अभिन्न है । कुमारिल ने भी वस्तु को सामान्य विशेषात्मक माना है । उनका कहना है कि सामान्य के अभाव में विशेष का और विशेष के अभाव में सामान्य का सद्भाव नहीं हो सकता; अतः वस्तु को सामान्य-विशेष उभयात्मक मानना चाहिए । मात्र इतना ही नहीं परन्तु सामान्य और विशेष को परस्पर भिन्नाभिन्न मानना चाहिए ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि भारतीय चिन्तन में जहाँ एक ओर प्राचीन अद्वैतवादियों ने सत्ता को मात्र सामान्य रूप माना और विशेष या व्यक्ति को प्रतीति कहा उसके ठीक विपरीत बौद्धों ने सत्ता को मात्र व्यक्ति या विशेष माना और सामान्य को प्रतीति कहा । इन दोनों ऐकात्मिक दृष्टिकोणों में १. द्वादशारं नयचक्रं, टीका० पृ० ११-१२ २. सांख्यैस्तु....त्रैगुण्यरूपस्य सामान्यस्याभ्युपगमात् ।
न्यायप्र० पं० पृ० ७४ ३. निविशेष न सामान्यं भवेच्छशविषाणवत् । सामान्यरहितत्वाच्च विशेषास्तद्वदेव हि ।।
श्लोकवार्तिक० आकृति० १० ४. सर्ववस्तुषु बुद्धिश्च व्यावृत्त्यनुगमात्मिका । जायते द्रव्यात्मकत्वेन विना सा च न सिद्धयति ।।
वही० ५ ५. तेन नात्यन्तभेदो पि स्यात्सामान्य विशेषयोः ।
वही० ११
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