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सामान्य और विशेष की समस्या मात्र विजातीय तत्त्वों की व्याकृत्ति से होती है । इस प्रकार बौद्धों के अनुसार सामान्य वस्तु सत् नहीं है वह मात्र एक प्रत्यय है जिसका कोई विषय नहीं है। दूसरे शब्दों में सामान्य काल्पनिक है, हम मनुष्यों में एकत्व की अनुभूति करते हैं, किन्तु यह अनुभूति इस आधार पर नहीं होती की सब मनुष्यों में एकरूपता है। पशु आदि से भिन्न होने के कारण ही हम उसे मनुष्य मानते हैं। इस प्रकार सामान्य या जाति तो काल्पनिक ही है । बौद्धों के इस दृष्टिकोण के विरोध में अभेदवादी या अद्वैतावादी विचारकों का मत कहता है कि सत् सामान्य रूप है विशेष मात्र प्रतिभास है ।२ द्वादशार-नयचक्र में हमें वेदान्त के सामान्यवाद की कोई समीक्षा उपलब्ध नहीं होती किन्तु उसमें वैयाकरणिकों के सामान्यवाद का खण्डन किया गया है ।
सामान्यवादियों और विशेषवादियों के ऐकान्तिक सिद्धान्तों से ऊपर . उठकर कुछ भारतीय दार्शनिकों ने सामान्य और विशेष दोनों को ही स्वतन्त्र पदार्थ माना है । नैयायिक और वैशेषिक सामान्य और विशेष को वस्तुतत्व सत् मानते हैं । किन्तु उनके अनुसार सामान्य और विशेष एक-दूसरे से पृथक्-पृथक् हैं सामान्य और विशेष दोनों की स्वतन्त्र सत्ता है। और जिस प्रकार विशेष की सत्ता प्रतीति के आधार पर सिद्ध होती है उसी प्रकार सामान्य की सत्ता भी प्रतीति के आधार पर सिद्ध होती है। वस्तु में सामान्य तत्त्व की उपस्थिति के कारण ही जाति की अनुभूति होती है । सामान्य के अभाव में जाति की अनुभूति नहीं होती । किन्तु जाति की अनुभूति होती है उसी प्रकार हमें विशेष, व्यक्ति या व्यष्टि की अनुभूति होती है । सामान्य वह तत्त्व है कि जो सभी मनुष्यों को एक ही वर्ग में रखता है और विशेष वह तत्त्व है जो एक मनुष्य को दूसरे मनुष्य से पृथक् करता है । इस प्रकार व्यक्ति और समष्टि वस्तुसत् है ।
सांख्य दार्शनिक नैयायिकों के समान ही सत्ता में सामान्य और विशेष
१. न्यायावतारवातिकवृत्ति० पृ० २५१ २. वही० पृ० २५४ ३. भावो नुवृत्तेरेव हेतुत्वात् सामान्यमेव । द्रव्यत्वं, गुणत्वं, कर्मत्वं च सामान्यानि विशेषाश्च ।
वैशे० १.२.४-५
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