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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन किन्तु विधि नियम इत्यादि गाथा मल्लवादी की स्वयं रचना नहीं है। गाथा तो पूर्व अर्थात् बारहवें दृष्टिवाद में से उद्धृत की गई है ऐसा उल्लेख प्राप्त होता है। अतः गाथा अन्यकृत है । इस आधार पर हम यह कह सकते हैं कि नयचक्र ग्रन्थ विधिनियम इत्यादि गाथासूत्र का भाष्य है किन्तु स्वोपज्ञ भाष्य नहीं । इस नयचक्र के ऊपर सिंहसूरि क्षमाश्रमण ने विस्तृत टीका की रचना की है । यहाँ नयचक्र की बाह्य रचनाशैली के विषय में चर्चा की है; आन्तरिक रचनाशैली के विषय में आगे विस्तार से विवेचन किया जायेगा ।
भाषा
गाथा, भाष्य एवं टीका तीनों की भाषा संस्कृत है । भाषा प्रसन्न एवं मधुर होते हुए भी प्रौढ़ है । कहीं-कहीं तो मूल ग्रन्थ के अर्थ को समझना अति कठिन हो जाता है। अतः मूल ग्रन्थ के भाव को समझने के लिए टीका का आधार लेना पड़ता है । लम्बे समास एवं तर्कजाल से पूर्ण एवं कई विलुप्त परम्पराओं का कथनविवेचन प्रस्तुत ग्रन्थ में किया गया है अतः ग्रन्थ की जटिलता में वृद्धि हुई है । ग्रन्थ को पुनः संकलित किया गया है उसके कारण कई अंशों का उद्धार नहीं हो पाया है तथापि एक विशिष्ट भाषा एवं शैली में रचा गया ग्रन्थ है।
नयचक्र की रचना-पद्धति
नयचक्र की रचना में तत्कालीन समस्त भारतीय दर्शनों को एक चक्र के रूप में संयोजित किया गया है । यहाँ यह प्रश्न उपस्थित होता है कि क्या इस प्रकार की रचना अन्य किसी भारतीय दर्शन परम्परा में भी उपलब्ध होती है । या चक्र की कल्पना करके दर्शन का विवेचन किया गया है ? यद्यपि यह सत्य है कि भारतीय दार्शनिक साहित्य में इस प्रकार की रचनाशैली वाला अन्य कोई भी ग्रन्थ उपलब्ध नहीं होता है । श्वेताश्वतर उपनिषद में एक कारिका उपलब्ध होती है जिसमें सांख्यदर्शन सम्मत प्रकृति के विभिन्न प्रभेदों को अर, तुम्ब आदि के रूप में स्थापित करके एक चक्र की कल्पना की गई
१. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ९
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