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________________ २५ जैन दार्शनिक परम्परा का विकास के अन्त में नयचक्र या द्वादशार-नयचक्र ऐसा ही उल्लेख प्राप्त होता है । इससे भी पूर्वोक्त बात को पुष्टि मिलती है । . एक ही नामवाले अनेक ग्रन्थ दार्शनिक साहित्य में उपलब्ध होते हैं । यथा तर्कभाषा, ज्ञानार्णव आदि । उसी तरह नयचक्र नामक तीन ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं प्रथम श्वेताम्बर परम्परा में हुए आचार्य मल्लवादी-कृत नयचक्र, दूसरा दिगम्बर परम्परा में हुए आचार्य देवसेनकृत नयचक्र', और तीसरा दिगम्बर परम्परा के आचार्य माइल्लधवलकृत नयचक्र । अन्तिम दोनों नयचक्र बहुत बाद के हैं । यहाँ तो हम मल्लवादी-कृत नयचक्र की ही बात करेंगे । जो पाँचवी शती में रची गई कृति है । इस नयचक्र के ऊपर आचार्य सिंहसूरगणि क्षमाश्रमण विरचित एक अति विस्तृत टीका उपलब्ध होती है । रचनाशैली नयचक्र की रचना एक "विधिनियम" से प्रारम्भ होनेवाली गाथा के आधार पर की गई है । ग्रन्थ के प्रारम्भ में ही उक्त गाथासूत्र रखा गया है । इसी गाथासूत्र के भाष्य के रूप में नयचक्र का समग्र गद्यांश है । स्वयं आ० मल्लवादी ने नयचक्र को पूर्व महोदधि में उठनेवाले नयतरंगों के बिंदुरूप कहा है। प्रो० हीरालाल कापडिया नयचक्र को स्वोपज्ञ भाष्य के रूप में बताते हैं। १. इति नियमनियमभंगो नाम द्वादशो भंगो द्वादशारनयचक्रस्य । द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ८५४ - तदेतदेवं द्वादशारनयचक्रं सिद्धम् । वही, पृ० ८८६. २. द्वादशारं नयचक्र-सं. जम्बूविजय मुनि. ३. जैन साहित्य और इतिहास, पृ० १६८-१७५ ४. नयचक्र-सं. कैलाशचन्द्र शास्त्री । ६. द्वादशारं नयचक्रं, सं. जम्बूविजयजी ६. विधि-नियमभंग-वृत्तिव्यतिरिक्तत्वादनर्थक-वचोवत् । जैनादन्यच्छासनमनृतं भवतीति वैधर्म्यम् ॥ द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ९. ७. अस्य चार्थस्य पूर्वमहोदधि-समुत्पतित-नयप्राभृत-तरंगागमप्रभ्रष्टश्लिष्टार्थकणिक मात्रमन्य-तीर्थकर-प्रज्ञापनाभ्यतीतगोचर-पदार्थसाधनं नयचक्राख्यं । । वही. पृ० ९. ८. जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास, भाग-३, पृ० ११७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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