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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास
२७ है । किन्तु प्रस्तुत उपनिषद् में केवल सांख्यदर्शन के तत्त्वों को ही चक्राकार में कल्पित किया गया है परन्तु आगे उनका विशेष विवेचन नहीं किया गया है।
आचार्य मल्लवादी ने उपरोक्त उपनिषद् से प्रेरणा प्राप्त करके जैनदर्शन में भी चक्र के आधार पर ग्रन्थ रचने का विचार किया होगा, ऐसी हम कल्पना कर सकते हैं । नयचक्र में भी चक्र के अनुरूप रचना की गई है। श्वेताश्वतरोपनिषद में केवल सांख्यदर्शन के तत्त्वों को ही चक्राकार में स्थापित किया है किन्तु आ० मल्लवादी ने अपनी बुद्धि-प्रतिभा के द्वारा सारे भारतीय दर्शनों को एक चक्र में स्थापित करके अनेकान्तवाद की सिद्धि का एक नूतन प्रयास किया है । इस प्रकार प्रेरणा चाहे उपनिषद् से ली हो या पूर्व साहित्य से तथापि अपने पाण्डित्य एवं विद्वत्ता से उन्होंने ग्रन्थ को एक नया ही आयाम प्रदान किया है।
ग्रन्थ का नयचक्र नाम सार्थक है। जिस प्रकार चक्र में अर, नाभि एवं मार्ग होता है उसी प्रकार ग्रन्थ में भी अर, नाभि एवं मार्ग की कल्पना की गई है । चक्र में जिस प्रकार दो अरों के बीच में अरान्तराल होता है उसी प्रकार ग्रन्थ में भी अरान्तराल रखा गया है । - नयचक्र में अर के रूप में विधि आदि बारह अरों का कथन किया गया है। बारह विभागों को बारह अर कहा गया है । प्रत्येक अरात्मक विभाग में एक मान्यता को स्वीकार करनेवाले मतों का विवेचन किया गया है। चक्र में एक के बाद दूसरा अर आता है उसी प्रकार यहाँ भी एक अर के बाद दूसरे अर का विवेचन किया गया है । जहाँ पूर्व अर अपने मत का स्थापन करता है वहीं दूसरे अर के पूर्व में पूर्वोक्त अर का खण्डन भी पाया जाता है। इसी खण्डनात्मक विभाग को अरान्तराल कहा गया है। जिस प्रकार अन्तर के बाद ही दूसरा अर आता है उसी प्रकार पूर्वोक्त नय का खण्डन होने पर नया नय अर्थात् नया अर आता है। इस प्रकार पूरे ग्रन्थ में खण्डन एवं मण्डन की
१. तमेकनेमि त्रिवृत्तं षोडशान्तं शतार्धारं विंशति प्रत्यराभिः ।
अष्टकैः षड्भिविश्वरूपैकपाशं त्रिमार्गभेदं द्विनिमित्तैकमोहम् ॥
श्वेताश्वतरोपनिषद् १.४.
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