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________________ २८ द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन प्रक्रिया चलती रहती है । बारहवें अर के बाद पुनः प्रथम अर उपस्थित हो जाता है और वह अपने पूर्व में रहे बारहवें अर के दोषों का कथन करके अपने मत का स्थापन करता है अर्थात् इस खण्डन-मण्डन की प्रक्रिया का अन्त नहीं आता । इस प्रकार पूर्व-पूर्व नय दुर्बल और उत्तर-उत्तर नय सबल होने का बोध होता है किन्तु यह बोध वास्तविक नहीं है क्योंकि चक्र में कोई भी अर पूर्व ही या उत्तर ही हो ऐसा संभवित नहीं है उसी प्रकार नयचक्र में भी कोई अरात्मक विभाग पूर्व और कोई अरात्मक विभाग उत्तर में है यह कहना दोषयुक्त होगा । सब अपने पूर्व नय की अपेक्षा उत्तर है और अपने उत्तर नय की अपेक्षा से पूर्व है । अतः हम किसी एक अर में सबलत्व या निर्बलत्व का आरोप नहीं कर सकते । क्योंकि अपेक्षा-भेद से ही सबलत्व और दुर्बलत्व है। इस प्रकार इस ग्रन्थ में अनेकान्तवाद और स्याद्वाद का कथन अपनी विशिष्ट शैली में ही किया गया है । चक्र का प्रत्येक अर तुम्ब या नाभि में संलग्न होता है उसी प्रकार ये सभी नय अर्थात् दार्शनिक सिद्धान्त स्याद्वाद या अनेकान्तवाद रूप तुम्ब या नाभि में संलग्न हैं । यदि ये अर तुम्ब में प्रतिष्ठित न हों तो बिखर जायेंगे उसी प्रकार ये सभी नय यदि स्याद्वाद में स्थान नहीं पाते तो उनकी प्रतिष्ठा नहीं होती। दूसरे शब्दों में अभिप्रायभेदों को, नयभेदों को या दर्शन-भेदों को मिलानेवाले स्याद्वाद रूपी तुम्ब का नयचक्र में महत्वपूर्ण स्थान है। अर और तुम्ब दोनों होने पर भी नेमि के अभाव में चक्र गतिशील नहीं होता है और न चक्र ही कहलाता है, अतएव नेमि भी आवश्यक है । इस दृष्टि से नयचक्र के पूर्ण होने में भी नेमि आवश्यक है । प्रस्तुत नयचक्र में तीन अंशों में विभक्त नेमि की कल्पना की गई है। प्रत्येक अंश को मार्ग कहा गया है । प्रथम चार अर को जोड़नेवाला प्रथम मार्ग, अर के दूसरे चतुष्क को जोड़नेवाला द्वितीय मार्ग और तृतीय चतुष्क को जोड़नेवाला तृतीय १. एवं च वृत्तिवचनमशेषभंगैकवाक्यतायामेव प्रतिभंगमपि वृत्तिरिति ख्यापनार्थम् । स्याद्वादतुम्ब प्रतिबद्ध सर्वनय भंगात्मिकैकैव वृत्तिः सत्या, रत्नावलीवत्, अन्यथा वृत्यभाव एव । तथैव च सर्वैकान्तप्रक्रमः । द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ८८२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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