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जैन दार्शनिक परम्परा का विकास
उपरोक्त द्वादश भेदों में विधि और नियम शब्द का ही प्रयोग हुआ है। इन्हीं दो शब्दों के आधार पर अन्य भेदों की रचना की गई है । अत: विधि नियम शब्द की व्याख्या आवश्यक हो जाती है । उपर्युक्त द्वादश भेदों का निर्माण जिस गाथासूत्र से हुआ है वही गाथा न्यायावतारवातिकवृत्ति में उद्धृत की गई है और उसकी व्याख्या में कहा गया है कि विधि अर्थात् उत्पाद, भंग का अर्थ व्यय और नियम अर्थात् ध्रौव्य जैनदर्शन में सकल वस्तु उत्पाद, व्ययध्रौव्यात्मक है । इस प्रकार विधि का अर्थ उत्पाद एवं नियम का अर्थ ध्रौव्य किया गया है ।२ यही अर्थ पं० कैलाशचन्द्र शास्त्रीजी ने विधि नियम इत्यादि गाथा के अर्थ करते हुए इस प्रकार किया है-जैनशासन से भिन्न अन्य शासन उत्पाद (विधि), व्यय (भंग) और ध्रौव्य (नियम) से रहित होने से अनर्थक वचनों के तुल्य है ।३ किन्तु न्यायावतारवृत्तिकार एवं पण्डितजी का उपरोक्त अर्थ ग्रन्थ के चर्चित वादों के अनुरूप नहीं है क्योंकि विधिवाद में सत्ता को ध्रुव माननेवाले दर्शनों का विवेचन है तथा नियमवाद में सत्ता को अनित्य माननेवाले दर्शनों की चर्चा प्राप्त होती है । अतः उपरोक्त अर्थ यथार्थ नहीं है । न्यायावतारवृत्ति में अन्यत्र विधि का अर्थ विधेय किया है अर्थात् सत् को विधेयात्मक माननेवाला दर्शन । यह प्रस्तुत अर्थ अधिक उपयुक्त लगता है ।
प्रो० हीरालाल रसिकदास कापड़िया ने विधि और नियम का अर्थ व्याकरण प्रसिद्ध उत्सर्ग एवं अपवाद किया है । इस अर्थ के अनुसार विधिवादी दार्शनिक वे हैं जो जगत् को नित्य मान रहे हैं और नियमवादी दार्शनिक वे हैं जो जगत् को अनित्य मान रहे हों । संभवत: प्रो० कापड़ियाजी ने नयचक्र में वाक्यपदीय का अत्यधिक उपयोग होने के कारण उपर्युक्त
१. न्यायावतारवातिकवृत्ति, पृ० ११२. २. विधिरुत्पादः, भंगोव्ययः, नियमो ध्रौव्यमिति तदात्मकं सकलमेव वस्तु, तस्य साकल्येन
प्रतिपादनान् आगमोत्तराणां न प्रमाण्यमिति । न्यायावतारवार्तिकवृत्ति, पृ० ११३. ३. नयचक्र, प्रस्तावना, पृ० १५. ४. ....तच्च सामान्यं वा विशेषो वेति विधिरेव शब्दार्थ: स्यात् ।। न्यायावतार वृ० पृ० ९५. ५. जैन संस्कृत साहित्यनो इतिहास, भाग-३, पृ० ११६.
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