________________
द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन कल्पना की होगी । यह कल्पना सर्वथा अनुपयुक्त तो नहीं है क्योंकि टीकाकार स्वयं कहते हैं कि विध्यादि चार अर नित्यवादी हैं । उभयादि चार अर नित्यानित्यात्मक वादी हैं और अन्तिम नियम आदि चार अर अनित्यवादी हैं । इस प्रकार विधि का अर्थ नित्य एवं नियम का अर्थ अनित्य कर सकते हैं।
विधि शब्द की चर्चा करते हुए बृहत्कल्पसूत्र में कहा गया है कि आनुपूर्वी, परिपाटी, क्रम, न्याय, स्थिति, मर्यादा और विधान यह सब विधिशब्द के पर्यायवाची शब्द हैं । इस प्रकार विधि के विविध पर्यायवाची शब्दों का उल्लेख प्राप्त होता है । आनुपूर्वी का अर्थ परम्परा, क्रम होता है तथा परिपाटी का अर्थ परम्परागत् प्रणाली या रीति होता है । इस प्रकार प्रस्तुत अर्थ को स्वीकार किया जाय तब विधि का अर्थ लोक-रूढ़ी होता है और उसके अनुसार प्रथम विधि अर में लोकवाद का कथन है ही इस प्रकार विधि का अर्थ प्रणालीगत मतवाद भी कर सकते हैं । स्थिति और मर्यादा शब्द का अर्थ स्पष्ट ही है अतः विधिवाद स्थिति को माननेवाला या किसी निश्चित तत्त्व को माननेवाला वाद है, ऐसा भी कर सकते हैं । अब हमें यह देखना चाहिए कि आ० मल्लवादी के टीकाकार सिंहसूरि प्रस्तुत शब्दों की क्या व्याख्या करते हैं ? टीकाकार प्रथम अर में कहते हैं कि विधि और नियम शब्द कोई अलौकिक शब्द नहीं हैं किन्तु लोक प्रचलित शब्द ही हैं । मूल ग्रन्थकार ने विधि शब्द का आचार एवं स्थिति अर्थ किया है। टीकाकार इस शब्द का अर्थ करते हुए कहते हैं कि जो सत् को भावरूप मानते हैं वे विधिवादी हैं । अथवा जो
१. विधिभंगाश्चत्वार आद्या उभयभंगा मध्यमाश्चत्वारो नियमभंगाश्चत्वारः पाश्चात्या यथासंख्यं नित्य
प्रतिज्ञाः ४, नित्यानित्यप्रतिज्ञाः ४, अनित्यप्रतिज्ञाश्च ४ ॥ द्वादशारं नयचक्रं-टीका, पृ० ८७७. अणुपुव्वी परिपाडी, कमो व नामो ठिई य मज्जादा । होइ विहाणं च तहा, विहीए एगट्ठिया हुति ॥२०८।।
बृहत्कल्प, पृ० ६७ ३. विधिनियमशब्दावलौकिकौ इति यरो मा मंस्तेति, द्वा० न० पृ० १०. ४. विधिराचारः स्थितिः......द्वा० न० पृ० १०. ५. विधीयत इति विधिभावसाधनोऽध्यातकर्थः द्वा० न० टी० पृ० १०.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org