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चतुर्थ अध्याय
ईश्वर की अवधारणा
वर्तमान युग में जब धर्मदर्शन की चर्चा की जाती है तो उसके साथ अनिवार्य रूप से ईश्वर की अवधारणा जुड़ी ही रहती है। आज सामान्यतया धर्म को ईश्वरवाद का पर्यायवाची माना जाता है, किन्तु ऐतिहासिक दृष्टि से विचार करने पर हम यह पाते हैं कि ईश्वर की अवधारणा का एक कालक्रम में विकास हुआ है। भारतीय धर्मों में अनेक ऐसे धर्म रहे हैं जो ईश्वरवाद की अवधारणा को स्वीकार करके नहीं चलते ।
ऐतिहासिक दृष्टि से वेद सबसे प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ हैं । आज जब हम वैदिक धर्म की बात करते हैं तब हम मानते हैं कि उसमें ईश्वर की अवधारणा अनुस्यूत है, किन्तु यदि तटस्थ दृष्टि से विचार करें तो यह पाते हैं कि ऋग्वेद जैसे प्राचीनतम ग्रन्थ में ईश्वर की अवधारणा का पूर्णतः अभाव है। इसमें एक भी स्थल ऐसा नहीं है जहाँ ईश्वर शब्द का प्रयोग किया गया हो । उसमें विभिन्न देवों की चर्चा तो उपलब्ध होती है किन्तु सर्वशक्तिमान और सर्वनियंता ईश्वर की अवधारणा स्पष्ट रूप से अनुपस्थित है । यही स्थिति सामान्यतया यजुर्वेद और सामवेद की भी है । यद्यपि यह अवश्य सत्य है कि वेदों के बदुदेववाद से ही ईश्वरवाद का विकास हुआ । सबसे पहले हम अथर्ववेद जो अपेक्षाकृत नवीन वेद है उसमें ईश्वर शब्द को पाते हैं किन्तु वहाँ
१. ईश्वर सम्बन्धी विचार और विश्व संस्कृति - कुमारी कंचनलता सब्बरवाल, पृ० - ५३.
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