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________________ तृतीय अध्याय कारणवाद विश्व-सृजन का कोई कारण होना चाहिए, इस विषय की चर्चा वैदिक परम्परा में विविध रूपों में हुई है । किन्तु विश्ववैचित्र्य एवं जीवसृष्टिवैचित्र्य का कारण कौन है ? इसका विचार भारतीय साहित्य के प्राचीनतम् ग्रन्थ ऋग्वेद् (प्रायः ई. पू. १५००) में उपलब्ध नहीं होता है। इस विषय में सर्वप्रथम उल्लेख श्वेताश्वतर उपनिषद् (ईसा पूर्व कहीं) में प्राप्त होता है । प्रस्तुत उपनिषद् में काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, भूत और पुरुष इनमें से किसी एक को कारण मानना या इन सबके समुदाय को कारण मानना चाहिए, ऐसा प्रश्न उपस्थित किया गया है। इससे ज्ञात होता है कि उस युग में चिन्तक जगत्वैचित्र्य के कारणों की खोज में लग गए थे एवं इसके आधार पर विश्ववैचित्र्य का विविध रूपेण समाधान करते थे। इन वादों में कालवाद का सबसे प्राचीन होने का प्रमाण प्राप्त होता है । अथर्ववेद (प्रायः ई. पू. ५००) में काल का महत्त्व स्थापित करनेवाला कालसूक्त है जो इस बात की पुष्टि करता है । कालवाद : अथर्ववेद में कहा गया है कि काल से ही पृथ्वी की उत्पत्ति हुई है, १. कालः स्वभावो नियतिर्यदृच्छा भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्वा । संयोग एषां न त्वात्मभावादात्माप्यनीश: सुखदुःखहेतोः ॥ श्वेताश्वतरोपनिषत्, १/२. २. अथर्ववेद, पृ० ४०५-४०६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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