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________________ अनुभव और बुद्धिवाद की समस्या ५७ ____ अन्त में आचार्य मल्लवादी कहते हैं कि इतना नहीं किन्तु जो लोक को प्रमाणभूत नहीं माननेवाले दार्शनिकों के मत का पद-पद और वाक्य-वाक्य पर प्रत्यक्ष और अनुमान से विरोध आता है । लोकानुभूति को प्रमाण नहीं माननेवाले शास्त्रकार की प्रवृत्ति लोक-विरुद्ध होने के कारण प्रत्यक्ष और अनुमान विरोध आयेगा ही । लोक प्रत्यक्ष और अनुमान को प्रमाण मानता है । अतः लोक में प्रत्यक्ष और अनुमान प्रमाण के रूप में व्यवस्थित हुए हैं तथा लोक प्रत्यक्ष और अनुमान ज्ञान का आधार माना गया है, ऐसे लोक को ही यदि प्रमाण न माना जाए तब तो शास्त्रकार की प्रवृत्ति ही अप्रमाण हो जायेगी। इस प्रकार लोकवाद का स्थापन किया गया है । साथ ही साथ श्रुति को ही प्रमाण माननेवालों की प्रवृत्ति मर्यादित और त्रुटिपूर्ण होने के कारण विश्वस्त नहीं मानी गई है। आचार्य मल्लवादी ने यह बताया है कि अधिक क्या कहें समस्त दर्शनों में से कोई एक दर्शन भी प्रत्यक्ष ज्ञान की निर्दोष व्याख्या नहीं कर पाता है । तब किस शास्त्र (श्रुति) के ऊपर विश्वास किया जाए। अन्त में वेदवादियों को भी अज्ञानवाद के उपजीवक बताते हुए कहा है कि वेदवादियों ने भी माना है कि सर्वमिदमज्ञान प्रतिबद्धमेव जगत् पृथिव्यादिरे अर्थात् यह समस्त जगत् पृथ्वी आदि अज्ञान से अनुविद्य है । इस जगत् में कल्पित और अकल्पित तथा नाना प्रकार के ज्ञान की अनुपपत्ति होती है, अतः यह जगत् अज्ञान से भरा है । ज्ञान भी अज्ञान से युक्त है । अतः लोकवाद ही श्रेष्ठ है । इस प्रकार विधि नामक नय में लोकवाद का स्थापन किया गया है। १. लोकाप्रामाण्ये च सर्वत्र प्रत्यक्षानुमानविरोधावुपस्थितावेव, तत्स्थत्वात्तयोः । द्वादशारं नयचक्रं० पृ० ५८ २. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० १११-११२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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