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________________ ५६ द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन सामान्यात्मक ही मानी जायेगी और वस्तु में विशेष का सर्वथा निषेध मानना होगा। किन्तु जब वस्तु के सामान्य का प्रत्यक्ष होता है उसी समय विशेष का भी प्रत्यक्ष होता है । अतः यह मानना होगा कि अमुक अंश में वस्तु सामान्यात्मक और अमुक अंश में विशेषात्मक है । अतः अंशात्मक प्रत्यक्ष विरोध दोष आयेगा । इसका निराकरण करना संभव नहीं है। स्ववचन विरोध दोष अपने मत की स्थापना के लिए जो शब्द-प्रयोग प्रयुक्त किया है उसका अन्य युक्ति के द्वारा निराकरण हो जाने से अन्य शब्द-प्रयोग करना स्ववचन विरोध है । यहाँ शब्द नित्य ऐसा स्वीकार करने पर विशेषवादी पूर्वोक्त मत का खण्डन करता है तब शब्दः अभिव्यक्त का आश्रय लेना स्ववचन विरोध माना गया है। अभ्युपगम विरोध नयचक्रकार केवल बुद्धिवाद को या श्रुति को ही प्रमाण माननेवाले अलौकिकवादियों के समक्ष एक और अभ्युपगम विरोध दोष का उद्भावन करते हैं । स्वशास्त्र में सर्वत्र प्रसिद्ध ऐसे सिद्धान्त को स्वीकार करने के पश्चात् युक्ति से उसका बाधित होना अभ्युपगम विरोध दोष माना गया है। यहाँ सर्वसर्वात्मक वाद के सिद्धान्त को लेकर ग्रन्थकार कहते हैं कि आपने प्रथम लोकग्राह्य वस्तु का निषेध करके सर्वसर्वात्मकवाद या सर्वथा सामान्यैकान्तवाद का स्थापन किया किन्तु वस्तु केवल सामान्यात्मक ही नहीं वल्कि वह विशेषात्मक भी है और ऐसा सिद्ध होने पर सर्वसर्वात्मक सिद्धान्त के स्वीकार के साथ विरोध आता है । इस प्रकार उपरोक्त दोषों में एक ही हेतु कारणभूत है वह है आप द्वारा कथित वस्तु का अन्य रूप में स्वीकार या प्राप्ति । अतः केवल बुद्धिवाद, तर्कवाद तथा श्रति को प्रमाण मानने पर उपरोक्त दोषों का उद्भावन होता है जो अपरिहार्य है। इसी कारण आचार्य मल्लवादी अज्ञानवादी या लोकवादी के मत का स्थापन करते हुए कहते हैं कि लोक द्वारा वस्तु जैसी ग्राह्य होती है, वैसी ही होती है। उससे भिन्न वस्तु का स्वरूप नहीं होता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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