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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
ज्ञान और क्रिया के पारस्परिक सम्बन्ध को लोक-प्रसिद्ध अन्ध-पंगु न्याय के आधार पर स्पष्ट करते हुए आचार्य लिखते हैं कि जैसे वन में दावानल लगने पर पंगु उसे देखते हुए भी गति के अभाव में जल मरता है और अन्धा सम्यक मार्ग न खोज पाने के कारण जल मरता है वैसे ही आचरणविहीन ज्ञान पंगु के समान है और ज्ञान चक्षुविहीन आचरण अन्धे के समान है । आचरणविहीन ज्ञान और ज्ञानविहीन आचरण दोनों निरर्थक हैं और संसार रूपी दावानल से साधक को बचाने में असमर्थ हैं । जिस प्रकार एक चक्र से रथ नहीं चलता, अकेला अन्धा, अकेला पंगु इच्छित साध्य तक नहीं पहुँचते, वैसे ही मात्र ज्ञान अथवा मात्र क्रिया से मुक्ति नहीं होती, वरन् दोनों के सहयोग से मुक्ति होती है । भगवतीसूत्र में ज्ञान और क्रिया में से किसी एक को स्वीकार करने की विचारणा को मिथ्या विचारणा कहा गया है ।२
ज्ञान एवं क्रिया की आवश्यकता के विषय में डॉ० सागमल जी जैन का कहना है कि३ "ज्ञान एवं क्रिया दोनों ही नैतिक साधना के लिए आवश्यक हैं । ज्ञान और चारित्र दोनों की समवेत साधना से ही दुःख का क्षय होता है। क्रियाशून्य ज्ञान और ज्ञानशून्य क्रिया दोनों ही एकान्त हैं और एकान्त होने के कारण जैनदर्शन की अनेकान्तवादी विचारणा के अनुकूल नहीं हैं ।" इस प्रकार ज्ञानवाद एवं क्रियावाद का विवेचन जैनदर्शन के आगमिक साहित्य में प्राप्त होता है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि प्राचीन आगमिक परम्परा में क्रियावादी विचारक वे माने जाते थे जो मोक्षमार्ग के रूप में क्रिया या आचार को महत्त्व
१. हयं नाणं कियाहीणं, हया अन्नाणओ किया ।
पासंतो पंगुलो दट्ठो, धावमाणो अ अंधओ ॥ संजोगसिद्धीइ फलं वयंति, न हु एगचक्केण रहो पयाइ । अंधो य पंगू य वणे समिच्चा, ते संपाउत्ता नगरं पविट्ठा ॥
- वही० श्लोक० १०१-२, पृ० ११ २. भगवतीसूत्र० ८।१०।४१ ३. जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन, भा० र० डॉ० सागरमल
जैन, पृ० ३३
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