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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
होता है । तदनुसार शुभाशुभ प्रवृत्तियों का प्रेरक स्वभाव है । सभी कुछ स्वभाव से निर्धारित है । व्यक्ति अपने प्रयत्न या पुरुषार्थ से उसमें कोई परिवर्तन नहीं कर सकता । सभी तरह के भाव और अभाव स्वभाव से प्रवर्तित एवं निवर्तित होते हैं। पुरुष के प्रयत्न से कुछ नहीं होता । गीता में कहा गया है कि लोक का प्रवर्तन स्वभाव से ही हो रहा है । इसी प्रकार माठरवृत्ति (ईस्वी चौथी शती), उदयनाचार्य-कृत् न्यायकुसुमाञ्जलि (प्रायः १२वीं शती) एवं अज्ञात कर्तृक सांख्यवृत्ति (प्राक् मध्यकालीन ?) में भी स्वभाववाद के उल्लेख प्राप्त होते हैं ।
... हरिभद्रकृत शास्त्रवार्तासमुच्चय (प्रायः ईस्वी ७७०-७८०) में स्वभाववाद की अवधारणा को व्यक्त करते हुए कहा गया है कि प्राणी का मातृगर्भ में प्रवेश करना, बाल्यावस्था प्राप्त करना सुखद-दुःखद अनुभवों का भोग करना इनमें कोई भी घटना स्वभाव के बिना नहीं घट सकती। स्वभाव ही सब घटनाओं का कारण है । जगत् की सभी वस्तुएँ स्वतः ही अपनेअपने स्वरूप में उस-उस प्रकार से वर्तमान रहती हैं तथा अन्त में नष्ट हो जाती हैं। जैसे पकने के स्वभाव से युक्त हुए बिना मूंग भी नहीं पकती भले ही कालादि सभी कारण-सामग्री उपस्थित क्यों न हों । जिसमें पकने का स्वभाव ही नहीं है वह मूंग कभी नहीं पकता तथा विशेष स्वभाव के अभाव में भी कार्य विशेष की उत्पत्ति यदि संभव मानी जाए तो अवाञ्छनीय परिणाम का सामना करना पड़ेगा । यथा मिट्टी में यदि घड़ा बनाने का स्वभाव है किन्तु कपड़ा बनाने का स्वभाव नहीं है ऐसा मानने पर मिट्टी से कपड़ा बनने की आपत्ति भी आ पड़ेगी । यही वर्णन नेमिचन्द्रकृत प्रवचन-सारोद्धार (प्रायः १२वीं शती) एवं उसकी वृत्ति में भी प्राप्त होता है।
१. म० 'शां०', २५.१६ २. गीता, ५.१४. ३. माठरवृत्ति, का० ६१, न्यायकुसुमांजलि, १.५, सांख्यवृत्ति, का० ६१. ४. न स्वभावातिरेकेण गर्भबालशुभादिकम् । यत्किञ्चिज्जायते लोके तदसौ कारणं किल । सर्वे
भावाः स्वभावेन स्वस्वभावे तथा तथा । वर्तन्ते निवर्तन्ते कामचारपराङ्मुखाः ॥ न विनेह स्वभावेन मुद्गपक्तिरपीक्ष्यते । तथाकालादिभावेऽपि, नाश्वभाषस्य सा यतः ।।
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