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इस प्रकार कालवाद की स्थापना एवं खण्डन किया गया है । निष्कर्ष यह है कि केवल कालवाद ही एकमात्र सम्यग् है यह मानने पर दोष आयेगा | अतः काल को ही एकमात्र कारण मानना युक्तिसंगत नहीं है । काल एक कारण हो सकता और उसके साथ-साथ अन्य कारणों की भी संभावना का निषेध नहीं कर सकते हैं ।
कारणवाद
स्वभाववाद
पूर्वोक्त कालवाद की तरह ही स्वभाववाद का मानना है कि जगत् की विविधता का कारण स्वभाव ही है' । स्वभावतः ही वस्तु की उत्पत्ति एवं नाश होता है । पदार्थों में भिन्नता या समानता का कारण भी स्वभाव है यथाअग्नि की उष्णता और जल की शीतलता स्वभावगत् ही है । आम की गुठली से आम और बेर की गुठली से बेर ही उत्पन्न होगा क्योंकि उनका स्वभाव ऐसा ही है । भारतीय दर्शन परम्परा के प्राचीन ग्रन्थों में भी स्वभाववाद का विवेचन प्राप्त होता है । उपनिषदों में स्वभाववाद का उल्लेख मिलता ही है । स्वभाववादी के अनुसार विश्व में जो कुछ होता है वह स्वभावतः ही होता है स्वभाव के अतिरिक्त कर्म, ईश्वर या अन्य कोई कारण नहीं है ।
अश्वघोषकृत् बुद्धचरित ( ईस्वी दूसरी शती) में स्वभाववाद की अवधारणा को व्यक्त करते हुए कहा गया है कि काँटे की तीक्ष्णता, मृग एवं पक्षियों की विचित्रता, ईख में माधुय, नीम में कटुता का कोई कर्त्ता नहीं है, वे स्वभावतः ही हैं । इसी प्रकार स्वभाववाद की चर्चा गुणरत्नकृत् षड्दर्शनसमुच्चयवृत्ति में तथा आचार्य नेमिचन्द्रकृत् गोम्मटसार' (ईस्वी १०वीं शती अन्तिमचरण) में भी मिलती है । महाभारत में भी स्वभाववाद का वर्णन प्राप्त
स्वभाव : प्रकृतिरशेषस्य । द्वा० न० पृ० २२०.
१.
२. श्वेता०, १.२.
३.
कः कण्टकानां प्रकरोति तैक्षण्यं विचित्रभावं मृगपक्षिणां च ।
स्वभावतः सर्वमिदं प्रवृत्तं न कामचारोऽस्ति कुतः प्रयत्नः ॥ बुद्धचरित. ५२
४. षड्दर्शनसमुच्चय पृ० २०.
५. गोम्मटसार, कर्मकाण्ड श्लो० ८८३.
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