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द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
कालकवलित हो गई होगी। उपरोक्त कथनानुसार प्रस्तुत टीका में नय का ही विवेचन होने की संभावना है।
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द्वादशार-नयचक्र'
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प्रस्तुत ग्रन्थ अपने मूल स्वरूप में नष्ट हो चुका इस ग्रन्थ के ऊपर आचार्य सिंहसूरि की एक विस्तृत टीका उपलब्ध हो रही है । इसी टीका ग्रन्थ में प्रयुक्त प्रतीकों के आधार पर मूल ग्रन्थ को पुनः सुग्रथित किया गया है । इसमें एक नई दृष्टि से नयों का विवेचन एवं विभाजन किया गया है जो जैनदर्शन में अन्यत्र उपलब्ध नहीं है । प्रस्तुत ग्रन्थ के विषय में विस्तृत विवेचन आगे किया जायेगा क्योंकि यही ग्रन्थ हमारे शोधप्रबन्ध का विवेच्य ग्रन्थ है ।
दव्वाट्यिनयपयडी सुद्दा संगहपरूवणाविसओ ।
पडिरूवे पुण वयणत्थनिच्छओ तस्स ववहारो ॥ ४ ॥
इति गाथासूत्रम् । अत्र च संग्रहनयप्रत्ययः शुद्धो द्रव्यास्तिकः व्यवहारनयप्रत्ययस्त्वशुद्ध इति तात्पर्यार्थः । अवयवार्थस्तु द्रव्यास्तिकनयस्य व्यावर्णितस्वरूपस्य प्रकृति: स्वभाव: शुद्धा इत्यसंकीर्णा विशेषासंस्पर्शवती संग्रहस्य अभेदग्राही नयस्य पुरूपणा - प्ररूप्यते नये कृत्वा-उपवर्णना पदसंहतिस्तस्या विषयो भिधेयः । सन्मति तर्क प्रकरण टीका. पृ० ३१५. १. पक्खाणिओ च मल्लवाइणा विहिपुव्वणे ( विहिपुव्वेणं ) नयचक्रग्रन्थो ।
मल्लवादिचरित्रम्, द्वा० न० पृ० ९०६
तो मल्लचिल्लओ वि य विरईय नयचक्कमाहप्पो । लद्धजसो संघेण पवेसिओ वलहिनयरीए |
प्रबन्धचतुष्टये मल्लवादिकथानकम्, द्वा० न० पृ० ९०७.
नयचक्रं नवं तेन श्लोकायुतमितं कृतम् । प्राग्ग्रन्थार्थप्रकाशेन सर्वोपादेयतां ययौ ॥ (३५) प्रभावकचरिते मल्लवादिचरितम्, वही, पृ०
९१०.
२. बुद्धानन्दस्तदा मृत्वा विपक्षव्यन्तरोऽजनि । जिनशासन - विद्वेषिप्रान्तकालमतेरसौ ||
तेन प्राग्वैरतस्तस्य ग्रन्थद्वयमधिष्ठितम् ।
विद्यते पुस्तकस्थे तत् वाचितुं स न यच्छति ॥
प्रभावकचरित में वर्णित मल्लवादि-चरित - श्लो. ७२-७३; उद्धृत द्वादशारं नयचक्रं, पृ०
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