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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन गया है । उन-उन तत्त्वों के लक्षण, विभाग एवं स्वरूप का वर्णन है, तथापि इसमें भी दार्शनिक युग की खण्डन-मण्डन प्रवृत्ति का अभाव ही है । स्वोपज्ञ भाष्य में भी जैनदर्शन के अतिरिक्त अन्य दर्शनों के विषय में कोई विशेष चर्चा उपलब्ध नहीं होती है । प्रस्तुत लघु ग्रन्थ में जैनदर्शन का सार समाविष्ट होने के कारण बाद में सभी जैन परम्पराओं को-श्वेताम्बर, दिगम्बर आदि को समान रूप से मान्य हुआ और दोनों परम्पराओं में इस ग्रन्थ के ऊपर अनेक टीकाओं की रचना भी हुई । अनेकान्तस्थापन युग
आगम युग में जैन प्रमाणशास्त्र या न्यायशास्त्र की पूर्ण व्यवस्था नहीं हो पाई थी, तथा तद्विषयक स्वतन्त्र साहित्य का निर्माण भी नहीं हो पाया था । दूसरी ओर नागार्जुन, असंग, वसुबन्धु और दिङ्नाग ने भारतीय दार्शनिक परम्परा को एक नई गति प्रदान की । नागार्जुन ने शून्यवाद तथा असंग और वसुबन्धु ने विज्ञानवाद की स्थापना करके सभी भारतीय दार्शनिकों को अपने सिद्धान्त का रक्षण करने हेतु चिन्तन करने के लिए बाध्य कर दिया । दिङ्नाग ने प्रमाणशास्त्र की रचना की और शून्यवाद का समर्थन भी किया । इन दार्शनिक विचाराधाराओं के कारण अन्य नैयायिक, सांख्य, मीमांसक आदि ने भी अपने पक्ष को स्थिर करने पर विशेष बल दिया। प्रस्तुत दार्शनिक संघर्ष का प्रभाव जैनदर्शन पर भी पड़ा । जैन दार्शनिकों ने पूर्वोक्त दार्शनिकों से लाभ उठाकर अपने अनेकान्तवाद की स्थापना करने का प्रयास किया । सर्वप्रथम नयवाद को व्यवस्थित स्वरूप प्रदान करने का प्रयास आचार्य सिद्धसेन ने किया । अपने समय तक के दार्शनिक सिद्धान्तों को आगम सम्मत नयवाद में समन्वित करके अनेकान्तवाद की तार्किक स्थापना की । आचार्य सिद्धसेन के दो ग्रन्थ उपलब्ध होते हैं-(१) सन्मति-तर्क और (२) द्वात्रिंशत्-द्वात्रिंशिका । सन्मति-तर्कसूत्र
आगम में नयवाद का विवेचन था ही तथा निक्षेप एवं द्रव्य, क्षेत्र, काल १. जैन दार्शनिक साहित्य के विकास की रूपरेखा, पृ० ४.
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