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________________ जैन दार्शनिक परम्परा का विकास और भाव से पदार्थ का विचार करने की बात भी आगम में वर्णित थी । इन विचारों का आधार लेकर उसमें विभिन्न दार्शनिकों के मत को नयों में स्थापित किया तथा उनको जैनदर्शन के ही अंग मानकर विभिन्न नयों का वर्णन किया। उन सभी नयों का समूह ही जैनदर्शन है, ऐसा सन्मति-तर्कसूत्र में सिद्ध किया । इस प्रकार अनेकान्तवाद स्थापन किया । द्वात्रिंशत् द्वात्रिंशिकाएँ प्रस्तुत बत्तीसियों में प्रमुख रूप से भगवान् की स्तुति की गई है । स्तुति द्वारा स्वदर्शन मान्य सिद्धान्तों का स्थापन किया गया है तथा अन्य दर्शन भी नयात्मक ही हैं ऐसा वर्णन किया गया है । इसमें वैदिक सिद्धान्तों, न्याय दर्शन के, सांख्य दर्शन के, वैशेषिक दर्शन के, बौद्ध दर्शन के और नियतिवाद के सिद्धान्त का वर्णन भी प्राप्त होता है। इन सभी वादों को नयवादों में समाविष्ट किया । यथा-अद्वैतवादियों की दृष्टि को उन्होंने जैन संमत संग्रह-नय कहा, क्षणिकवादी बौद्धों का समावेश ऋजुसूत्र-नय में किया, सांख्य दृष्टि का समावेश द्रव्यार्थिक-नय में किया । पर्यायार्थिक तथा द्रव्यार्थिक-नय के समन्वित रूप में न्याय-वैशेषिक का समावेश किया । इस प्रकार आचार्य सिद्धसेन ने सभी दार्शनिक परम्पराओं को जैनदर्शन के नयवाद में स्थापित करके अनेकान्तवाद की स्थापना की । भेदवादी और अभेदवादी दर्शनों की समालोचना करके समस्त दर्शनों के प्रतीत होनेवाले विरोधों को अवास्तविक ठहराया और कहा कि अपेक्षा-भेद से ही भेद या अभेद हो सकता है । वस्तुत: वस्तु तो अनेकान्तात्मक ही है। दो मिथ्या वादों का मिलना ही स्याद्वाद है, फिर भी सम्यग् है । क्योंकि स्याद्वाद में परस्पर विरोधी वादों का समन्वय होता है अत: विरोध समाप्त हो जाता है । इस प्रकार विरोधी वादों का समन्वय करने का सर्वप्रथम प्रयास आचार्य सिद्धसेन ने किया । द्वादशार-नयचक्र प्रस्तुत ग्रन्थ के कर्ता आचार्य मल्लवादी हैं । आचार्य सिद्धसेन ने अन्य Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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