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________________ जैन दार्शनिक परम्परा का विकास जीवाभिगमसूत्र इस आगम ग्रन्थ में जीव के भेद-प्रभेदों की विस्तृत चर्चा की गई है । राजप्रश्नीयसूत्र इस ग्रन्थ में भगवान् पार्श्वनाथ की परम्परा के साधु केशी एवं प्रदेशी नामक नास्तिक राजा का संवाद है । प्रदेशी राजा ने जीव के अस्तित्व सम्बन्धी अनेकानेक संशय खड़े किए हैं और उन प्रत्येक संशय के सयुक्तिक उत्तर केशी द्वारा दिए गए हैं। इस प्रकार प्रस्तुत आगम ग्रन्थ में जीवसिद्धि की गई है। राजप्रश्नीयसूत्र को छोड़कर प्रायः सभी आगम ग्रन्थों में स्वमत का स्थापन करने का ही प्रयास रहा है । प्रश्नोत्तर शैली में रचे गए ग्रन्थों में भी तर्कशैली का अभाव ही मालुम पड़ता है । जीवादि पदार्थों का लक्षण एवं उनके भेद-प्रभेद की शैली ही प्रधान नही हैं। इस प्रकार पूर्वोक्त आगमों में जीव और जगत् के स्वरूप का चिन्तन किया गया है । आगम साहित्य की भाषा भी लोक-भोग्य प्राकृत रही है । उक्त पदार्थों का लक्षण करना और उसके भेदों का वर्णन करना ही आगमों का लक्ष्य हैं । सर्वत्र विवरणात्मक शैली का ही अनुसरण किया गया है । अन्य मतों का विवेचन भी प्राप्त होता है और उनके सिद्धान्तों के निराकरण का उल्लेख भी प्राप्त होता है तथापि तर्कशैली का अभाव है । संक्षेप में दार्शनिक शैली की दुरूहता तो आगमिक ग्रन्थों में है ही नहीं । तत्वार्थसूत्र और भाष्य- जैनदर्शन में यह पहला सूत्रात्मक एवं संस्कृत भाषा निबद्ध ग्रन्थ है । आ० उमास्वाति विरचित प्रस्तुत ग्रन्थ में जीवादि नव तत्त्वों का विवेचन किया गया है । आगमिक साहित्य अति विस्तृत एवं विषयों के भेद-प्रभेदात्मक वर्णनों से युक्त हैं तथा जीवादि पदार्थों का वर्णन भी यत्र-तत्र विकीर्ण है । अतः जैनदर्शन के सार को दर्शानेवाले एक ग्रन्थ की आवश्यक्ता थी जिसकी पूर्ति वाचक उमास्वाति ने की । इसमें जैनदर्शन के तत्वों का विवेचन किया Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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