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________________ ४४ द्वादशार- नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन का नियम अर्थात् विधि-नियम का नियम दोनों के तादात्म्य का निषेध स्वीकार किया गया है । यहाँ विधि गौण है और नियम (निषेध) मुख्य है । अपोहवाद का खण्डन करके शब्दाद्वैत की स्थापना की गई है । तत्पश्चात् शब्दाद्वैत के विरुद्ध ज्ञानवाद को रखा है । ज्ञानवाद का स्थापन करते हुए कहा गया है प्रकृति और निवृत्ति ज्ञान के बिना सम्भव नहीं है । शब्द तो ज्ञान का साधन मात्र है अतः शब्द की अपेक्षा ज्ञान ही प्रधान है । ज्ञानवाद के विरुद्ध स्थापना निक्षेप का निर्विषयक ज्ञान होता नहींइसका युक्ति से उत्थान है । शाब्दबोध जो होगा उसका विषय क्या माना जाय ? जाति या अपोह ? यहाँ अपोह का खण्डन करके जाति की स्थापना की गई है । यह शब्दनय का भेद माना गया है और इसका सम्बन्ध नन्दीसूत्र के "दुवालसंगं गणिपिडगमेकं पुरिसं पडुच्च सादियं सपज्जवसीयं" के साथ स्थापित किया गया है । ( ९ ) नियम इस अर में प्रारम्भ में पूर्वोक्त अर में स्थापित जातिवाद का खण्डन विशेषवाद के द्वारा किया गया है। और फिर विशेषवाद के विरुद्ध में जातिवाद का उत्थान किया गया है । इस अर में सामान्य और विशेष के एकान्तवाद, अन्यत्ववाद, द्वित्ववाद, उभयात्मकवाद एवं अन्यतर प्रधान-वाद का खण्डन किया गया है और यह बताया गया है कि वस्तु के स्वरूप का कथन ही नहीं किया जा सकता है । अतः वस्तु अवक्तव्य है । इस अर में शब्दनय का आश्रय लेकर चर्चा की गई है । यहाँ नियम शब्द का अर्थ अवक्तव्य किया है । इस अर का सम्बन्ध आगम के "इमाणं रयणप्पभा पुढवी आता नो आता ? गोयमा अप्पणो आदि आता, परस्स आदि नो आता तदुभयस्स आदि के अवत्तव्वं । के साथ स्थापित किया है । २ १. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ७३७. २. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ७६४. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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