SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 62
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन दार्शनिक परम्परा का विकास ४५ (१०) नियमविधि प्रारम्भ में अवक्तव्यता का खण्डन किया गया है । साथ ही साथ अवयव-अवयवी, धर्म-धर्मी आदि का भी खण्डन किया गया है । इस नय का लक्ष्य भावस्वरूप विशेष-पदार्थ सिद्ध करना है । कहा गया है कि द्रव्योत्पत्ति गुणरूप है, अन्य कुछ नहीं है । रथांग ही रथ है अर्थात् द्रव्य जैसी कोई स्वतन्त्र वस्तु नहीं, गुण ही गुण है। प्रस्तुत अर समभिरूढ़ नय में अन्तर्भूत होता है । इस अर का सम्बन्ध आगम के कईविहे णं भन्ते ! भाव-परमाणु पन्नते ? गोयमा ! चउव्विहे पण्णत्तेवण्णवन्ते, गंधवंते, फासवत्ते, रसवत्ते । इस वाक्य के साथ किया गया है। (११) नियमोभयम् यह नय क्षणिक पदार्थों को ही मानता है । इस नय के अनुसार उत्पत्ति ही विनाश है। वस्तु प्रतिक्षण अन्यत्व को प्राप्त होती है। जैसे भाव निक्षेप केवल वर्तमान क्षण को ही मानता है उसी प्रकार प्रस्तुत नय का मानना है कि वस्तु केवल क्षणस्थायी है अर्थात् क्षणिकवाद ही प्रस्तुत अर का वक्तव्य है । यहाँ निर्हेतुक विनाशवाद के आश्रय से सर्वरूपादि वस्तु की क्षणिकता सिद्ध की गई है और प्रदीपशिखा के दृष्टान्त से वस्तु की क्षणिकता का समर्थन किया गया है। । प्रस्तुत अर एवंभूतनय का भेद है । इस अर का सम्बन्ध आगम के इमाणं भंते ! रयणप्पभा पुढवी किं सासता असासता ? के साथ जोडा गया (१२) नियमनियम इस अर में पूर्वोक्त क्षणिकवाद का खण्डन करके शून्यवाद का १. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ७९२. २. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ८०५. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy