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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन स्थापन किया गया है। नियम का नियम, निषेध का निषेध अर्थात् इस नियम क्षणिकवाद द्वारा स्थापित वस्तु का नियम अर्थात् खण्डन करके विज्ञानवाद की स्थापना कही गई है। इस अर में विज्ञानवाद एवं शून्यवाद दोनों का मण्डन एवं खण्डन दोनों किये गये हैं और अन्त में स्याद्वाद के आश्रय से वस्तु को अस्ति और नास्ति रूप सिद्ध करके शून्यवाद के विरुद्ध पुरुषादि वादों की स्थापना करके उसका निरास किया गया है ।
इस प्रकार खण्डन-मण्डन का यह चक्र चलता ही रहता है । एकएक वाद पूर्व-पूर्व वाद का खण्डन करता है और अपने पक्ष का स्थापन करता है किन्तु इन सभी पक्षों का सत्यत्व तभी हो सकता है जब वे एक साथ मिलें, अर्थात् सभी वादों का समूह ही सत्य है और वही स्याद्वाद है ।
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