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________________ १२५ क्रियावाद-अक्रियावाद कुल ३६३ भेदों का उल्लेख करते हैं । आचार्य सिंहसूरि ने सात सौ नयों की परम्परा का उल्लेख करके उन्हें उपर्युक्त चार भेदों में विभाजित किया है । यद्यपि उन्होंने इस तथ्य को स्पष्ट नहीं किया है कि क्रियावाद, अक्रियावाद, अज्ञानवाद तथा विनयवाद इन चारों में प्रत्येक के उपभेद कितने-कितने होते हैं ? पुनः हम यह भी देखते हैं कि आचार्य मल्लवादी ने अपनी योजना में इनके क्रम में भी अन्तर किया है। वे सर्वप्रथम अज्ञानवाद की स्थापना करके फिर क्रियावाद के द्वारा उसकी समीक्षा करवाते हैं और बाद में क्रियावद की स्थापना करते हैं। क्रियावाद और अक्रियावाद की इस चर्चा के प्रसंग में सर्वप्रथम हमें इस प्रश्न पर विचार कर लेना होगा कि क्रियावाद और अक्रियावाद इन शब्दों का अर्थ क्या है ? आचार्य मल्लवादी ने उन्हें किस अर्थ में प्रयुक्त किया है ? सूत्रकृतांग, जिसमें सर्वप्रथम इन चारों वर्गों का उल्लेख मिलता है ।२ उसकी टीका में शीलांकाचार्य (५वीं शती) क्रियावाद को स्पष्ट करते हुए लिखते हैं कि परलोक साधना में, आत्मसाधना में क्रिया उपयोगी है ऐसा माननेवाले क्रियावादी कहलाते हैं । दूसरे शब्दों में कहें तो जो साधना के क्षेत्र में ज्ञान की अपेक्षा विविध क्रियाओं को या साधना की विभिन्न विधियों को ही प्रमुखता देते हैं, वे क्रियावादी हैं । औपनिषदिक परम्परा में हम देखते हैं कि प्राचीन काल में ज्ञान-निष्ठा और कर्मनिष्ठा ऐसी दो परम्पराएँ प्रचलित थीं। ज्ञानवादी परम्परा यह मानकर चलती थी कि मोक्ष की साधना में ज्ञान ही एकमात्र साधन है । इसके विपरीत कर्मवादी परम्परा या क्रियावादी परम्परा मोक्ष की साधना में क्रिया या आचरण को आवश्यक मानती थी । आचार्य ता। १. असियसयं किरियाणं अकिरियाणं च होइ चुल सीती । अन्नाणिय सत्तट्ठी, वेणइयाणं च बत्तीसा ।। सूत्र० नि० गा० ११९ सूअगडे णं असीअस्स किरियावाइसयस्स चउरासीइए अकिरिआवाईणं सत्तट्ठीए अण्णगिअवाईणं बत्तीसाए वेणइअवाईणं तिण्हं तेसट्ठाणं पासंडिअसयाणं ॥ नन्दीसू० ४६ २. सूत्रकृतांग सूत्र १२।१ ३. क्रियैव परलोक साधनायालमित्येवं वदितुं येषां ते क्रियावादिनः । दीक्षातः एव क्रियारूपाया मोक्ष इत्येवमभ्युपगमपरेषु ॥ सू० कृ० । श्रु० ६अ० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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