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________________ १७० द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन होता है वह भावरूप कैसे हो सकता है । न तो अभाव से भाव की उत्पत्ति हो सकती है और न भाव का अभाव हो सकता है। किन्तु वस्तुतत्त्व में भावपक्ष और अभाव-पक्ष दोनों ही एक साथ रहे हुए हैं, और उन्हीं से उसका स्वरूप बनता है । अत: उसे एकान्तरूप से न तो भावरूप कहा जा सकता है और न अभावरूप । भाषा में यह सामर्थ्य नहीं है कि वह दोनों को एक साथ कह सके अतः वह अनिर्वचनीय सिद्ध होता है। इसी प्रकार आ० मल्लवादी एक दूसरी समस्या उठाते हैं । वे कहते हैं कि वस्तु एकान्तरूप से न तो सामान्य है और न विशेष । हम उसे सामान्य इसलिए नहीं कह सकते हैं कि उसमें कुछ विशिष्ठ गुणधर्म या पर्याय पाए जाते हैं । उसके आधार पर वे वस्तुएँ पृथक् की जाती हैं । दूसरी ओर यह भी सत्य है कि शब्द सामान्यरूप से किसी सामान्य या जाति का बोध कराते हैं। वे जातिवाचक होते हैं जैसे मनुष्य शब्द व्यक्ति-विशेष का वाचक न होकर सामान्यरूप से मनुष्य-जाति का वाचक है। न केवल मनुष्य, गौ, महिष, आदि अधिकांश शब्द सामान्यतया जाति या सामान्य का ही वाचक होता है लेकिन जिस सत्ता को वे वाच्य बनाते हैं वह न तो एकान्तरूप से सामान्य है और न विशेष ही । जो सामान्य-विशेषात्मक है उसे न तो सामान्य कहा जाता है और न विशेष । ऐसी स्थिति में उसका निर्वचन सम्भव नहीं हो पाता क्योंकि भाषा की दृष्टि से जब भी उसकी निर्वचनता का प्रयोग किया जाता है तब हमें उसे सामान्य कहना होगा या विशेष कहना होगा । अतः वस्तुतत्त्व को न तो समग्रत: सामान्य कहा जा सकता है और न विशेष । अतः वह अवक्तव्य ही है। इसी प्रकार वस्तु को न एक कहा जा सकता है और न अनेक । प्रत्येक वस्तु यहाँ अपने द्रव्य की अपेक्षा से एक होती है वहीं अपने पर्यायदृष्टि से अनेक भी ।२ भगवतीसूत्र में भ० महावीर से जब यह पूछा गया कि वे एक हैं या अनेक । तब उन्होंने कहा १. अतस्त्यक्त्वेमौ सामान्यविशेषैकान्तपक्षौ अवचनीयं वस्तु प्रतिपत्तव्यम् । नाप्यभावं न तदुपसर्जनं न भाव एव नाविशेषं न विशेषोपसर्जनं न विशेष एव नोभयोपसर्जनं नोभयप्रधानं वस्तु । अवचनीयभाव विशेषकारण कार्येकानेक प्रधानोपसर्जनं वस्तु । द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ७४३ २. सोमिला ! एके वि अहं दुवे वि अहं अक्खुए वि अहं अव्वए वि अहं अवट्ठिते वि अहं अणेकभूतभव्वभविए वि अहं । भगवतीसू० १०. १०.६४७ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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