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________________ सत्ता की वाच्यता का प्रश्न १७१ कि मैं एक भी हूँ और अनेक भी । भाषा की सीमा यह है कि वह एक या अनेक में से किसी एक विकल्प को पकड़कर उसका विधान या निषेध करती है । एक या अनेक दोनों पक्षों को एक साथ विधि-निषेध भाषा के द्वारा व्यक्त करना सम्भव नहीं है । भाषा विधि-निषेध की सीमाओं से घिरी हुई है इसलिए इसमें सत्ता को वाच्य बनाने की सामर्थ्य नहीं है क्योंकि सत्ता तो अनेक गुणधर्मों का पुञ्ज है । उसे एकान्तरूप से न सत् कहा जा सकता है न असत् । न सामान्य कहा जा सकता है न विशेष, न उसे एक कहा जा सकता है न अनेक । वह उत्पन्न भी होता है और नष्ट भी फिर भी ध्रुव बनी रहती है। भाषा और तर्क की दृष्टि से यह एक विरोधाभास है क्योंकि जिसकी उत्पत्ति और विनाश होती है उसमें ध्रौव्य नहीं होता है । इस कारण से उसे अनिर्वचनीय कहना होता है । इस प्रकार से वह अपने-आप में एक विरोधाभासपूर्ण एक स्थिति है । जैनाचार्यों ने इसलिए कहा है कि वस्तुतत्त्व में न केवल अनेक धर्म होते हैं अपितु विरोधी धर्म भी पाए जाते हैं ऐसी स्थिति में भाषा जो स्वयं विधि-निषेधों की कोटियों से सीमित है वह अपनी वाच्यता सामर्थ्य किस प्रकार रख सकती है । इस प्रकार मल्लवादी वस्तु के अनिर्वचनीय पक्ष का स्थापन करते हैं किन्तु हमें यह स्मरण रखना है कि वस्तु की अनिर्वचनीयता का स्थापन एकान्तिक या नित्य नहीं है। इसलिए अपने ग्रन्थ के दशवें अर में वे इस अवाच्यता का खण्डन भी करते हैं ताकि उनके द्वारा स्थापित इस अवाच्यता को निरपेक्ष अवाच्यता न समक्ष लिया जाय ।। यह सत्य है कि वस्तु को न तो एकान्तरूप से भावरूप कहा जा सकता है और न अभावरूप । न उसे सामान्यरूप कहा जा सकता है न विशेष में एक, न अनेक । न उसे कर्म कहा जा सकता है न कारण किन्तु यदि हम यहीं तक अपनी दृष्टि को सीमित रखें और यह मानलें कि उपर्युक्त आधारों पर वस्तु अवाच्य है किन्तु यहाँ यह प्रश्न भी उपस्थित होगा कि जो सत्-असत्, एक-अनेक, सामान्य-विशेष, कार्य-कारण कुछ भी नहीं है तो क्या वह वस्तु है भी ? जिसमें इस सबका अभाव हो वह तो खपुष्पवत् अवस्तु ही होगी । वस्तु हो ही नहीं सकती । मात्र निषेध से वस्तु का स्वरूप निश्चित नहीं होता यदि हमारी प्रतिपादन की शैली ऐसी निषेधात्मक ही रही तो निश्चितरूप से तत्त्व को शून्यरूप मानना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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