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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन उनके अनुसार उत्तराध्ययन जैसे प्राचीनतम आगम में द्रव्य को गुणों के आश्रय के रूप में ही परिभाषित किया गया है । उसमें "गणानामा-सवो दव्वो" कहकर ही द्रव्य को परिभाषित किया गया है ।
प्रो० जैन के अनुसार यह परिभाषा न्यायदर्शन से प्रभावित है। क्योंकि न्याय दार्शनिक भी द्रव्य को गुण का आश्रय मानते हैं । इस परिभाषा में द्रव्य
और गुण में आश्रय-आश्रयी भाव परिलक्षित होता है और इस प्रकार दोनों में भिन्नता भी परिलक्षित होती है ।२ ।।
इस परिभाषा के विरोध में जैन परम्परा में जो दूसरी परिभाषा आई वह "गुणानां समूहो दावो" है । जिसमें द्रव्य को गुणों के समूह के रूप में व्याख्यायित किया गया । इस परिभाषा में प्रो० जैन के अनुसार बौद्ध दर्शन के स्कन्धवाद का प्रभाव परिलक्षित होता है । यह परिभाषा द्रव्य और गुण की अभिन्नता को सूचित करती है और यह बताती है कि गुण से भिन्न द्रव्य की कोई पृथक् सत्ता नहीं होती है । यह परिभाषा मुख्य रूप से दिगम्बर परम्परा के ग्रन्थों में उपलब्ध होती है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जहाँ प्रथम वर्ग की परिभाषा द्रव्य और गुण में भेद-दृष्टि को समक्ष रखकर बनी वहाँ दूसरी परिभाषा में द्रव्य और गुण के अभेद पक्ष पर अधिक बल दिया गया । प्रो० जैन के अनुसार भेद और अभेद दोनों पक्षों पर समान रूप से बल देनेवाली तथा जैनों की अनेकान्तदृष्टि का अनुसरण करनेवाली जो द्रव्य की सन्तुलित और समन्वित परिभाषा हमें मिलती है वह उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र की है। उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में गुण पर्यायवत् द्रव्यम् कहकर गुण के साथ-साथ पर्याय को भी द्रव्य की परिभाषा में स्थान दिया, इस प्रकार से द्रव्य के परिवर्तनशील और अपरिवर्तनशील दोनों पक्षों को अपनी परिभाषा में समन्वित करने का प्रयास किया है। दूसरी विशेषता यह है कि उमास्वाति ने द्रव्य को गुण पर्यायवाला
१. उत्तराध्ययनसूत्र० २८.६ . २. क्रियागुणवत् समवायिकारणमिति द्रव्यलक्षणम् । वैशेषिकसूत्र० १.१.५
३. तत्त्वार्थसूत्र० ५.३७
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