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द्रव्य-गुण-पर्याय का सम्बन्ध
१२१ कहकर उनमें कथञ्चित् भिन्नता और कथञ्चित् अभिन्नता दोनों का ही कथन कर दिया है । इस प्रकार उमास्वाति ने जैनदर्शन की अनेकान्तदृष्टि को लक्ष्य में रखकर द्रव्य की एक समीचीन एवं संतुलित परिभाषा प्रस्तुत की है। उमास्वाति के परवर्ती जैन आचार्यों ने बाद में उन्हीं का अनुसरण किया है । स्वयं मल्लवादी क्षमाश्रमण ने अपने ग्रन्थ द्वादशारं नयचक्रं में उमास्वाति के तत्त्वार्थसूत्र के उपर्युक्त सूत्र को उद्धृत करके उन्हीं के पक्ष का प्रस्तुतीकरण किया है । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैनदर्शन में द्रव्य की परिभाषा को लेकर एक क्रमिक विकास देखा जाता है । किन्तु अन्त में उमास्वाति के द्वारा प्रस्तुत द्रव्य की विकसित परिभाषा ही उनके परवर्ती सभी जैनदार्शनिक आचार्यों के लिए आधारभूत रही है । सिद्धसेन दिवाकर२ और मल्लवादी क्षमाश्रमण ने भी इसी परिभाषा को अपना आधार बनाया है।
जैन आचार्यों ने द्रव्य की जो उपर्युक्त परिभाषा दी है उसकी विशेष मान्यता यह है कि द्रव्य, गुण और पर्याय अन्योन्याश्रित हैं ।४ द्रव्य से विभक्त गुण और पर्याय नहीं है । तथा गुण और पर्याय से विभक्त द्रव्य भी नहीं है । वस्तुतः जो द्रव्य है वह गुण-पर्यायात्मक है । ऐसा नहीं है कि गुण और द्रव्य अथवा गुण और पर्याय अपना पृथक्-पृथक् अस्तित्व रखते हैं । हम उनमें ज्ञानात्मक-दृष्टि से तो भेद कर सकते हैं किन्तु सत्तात्मक दृष्टि से कोई भेद नहीं है। संसार में कोई भी ऐसा द्रव्य उपलब्ध नही हो सकता जिसका कोई गुण या पर्याय नहीं हो । इसी प्रकार कोई भी गुण या पर्याय द्रव्य से विभक्त होकर नहीं पाये जाते । यही कारण है कि द्रव्य के बिना गुण और पर्याय की, तथा गुण और पर्याय के बिना द्रव्य की व्याख्या करना सम्भव नहीं है । द्रव्य, गुण और पर्याय का विश्लेषण तो अलग-अलग किया जा सकता है किन्तु उन्हें एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता
१. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० १७ २. सन्मति-प्रकरण १.१२ ३. द्वादशारं नयचक्रं, पृ० १७ ४. दव्वं पज्जवनियुतं दव्वविजुत्ता य पज्जवा णत्थि ।
उत्पाद-द्विति-भंगा हंदि दवियलक्खण एयं ।।
सन्मति-प्रकरण १.१२
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