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________________ १३२ द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन व्यक्ति की इच्छा और वर्तमान शरीर और इन्द्रियक्षमता का निर्धारण भी कर्मों के आधार पर ही होता है । वे स्पष्टरूप से कहते हैं कि प्राणियों की शुभाशुभ जाति, कुल, रूप, उत्कर्ष, अपकर्ष कर्म के वशीभूत हैं ।२ इसका तात्पर्य हुआ कि आ० मल्लवादी की दृष्टि में आत्मा स्वयं ही अपने कर्मों का कर्ता और उसका भोक्ता है । सभी प्राणी कर्मों के कर्ता होने से अपने भाग्य के विधाता हैं और उसी रूप में वह ईश्वर भी है ।३ आत्म कर्तृत्ववाद की आ० मल्लवादी की इस स्थापना को स्पष्ट करते हुए टीकाकार सिंहसूरि कहते हैं कि नैतिक व्यवस्था के लिए आत्मा को नित्य तथा कर्मों को कर्ता एवं भोक्ता मानना होगा। यदि नित्य आत्मा को नहीं माना जायेगा तो कृतप्रणाश कर्जन्तरफलभोग के दोष उत्पन्न होंगे साथ ही यदि हम आत्मा का कर्ता एवं भोक्ता नहीं मानेंगे तब प्राणियों के सदाचार और असदाचार के आधार पर फल व्यवस्था नहीं बनेगी और इस प्रकार प्राणी के हिताहित की प्राप्ति का भी परिहार हो जायेगा अर्थात् कहने का कोई अर्थ नहीं रहेगा कि यह करना चाहिए और यह नहीं करना चाहिए । दूसरे शब्दों में नैतिकता के उपदेश देनेवाले शास्त्रों की निरर्थकता का प्रश्न आयेगा । अतः आत्मा न केवल कर्म का कर्ता है अपितु स्वकृत कर्म के विपाक का भोक्ता भी है यह मानना होगा । यदि आत्मा को कर्त्ता और भोक्ता न मानकर कूटस्थ नित्य या अपरिणामी माना जायेगा तो फिर बन्धन, मोक्ष आदि की सम्भावना भी नहीं रहेगी ।५ १. कर्मवशादेव हि प्राणिनः शुभाशुभजातिकुलरूपाद्युत्कर्षापकर्षाः । द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ३३५ २. सुखाद्यात्मसंवेद्यलक्षणत्वात् कर्मणः सुखाद्यदृष्टाणूनामपि च कर्मत्वात् कर्मप्रवर्तनाभ्यु पगमात् ॥ वही० पृ० ३३५ ३. सर्वप्राणिनां कर्तृत्वात् कर्तृरव भवितृत्वाभ्युपगमात् तस्यैव भवितुश्च प्रयोजनात् सर्वेश्वरता । वही० पृ० ३३६ ४. मा भूवननकृताभ्यागमकृतप्रणाशकत्रन्तरफलसङक्रान्त्यादयो दोषा इति सदसदाचारा: प्राणिनः एव कर्त्तारो भोक्तारश्चाभ्युपगन्तव्याः, अन्यथा हिताहितप्राप्ति परिहारार्थानां शास्त्राणामानर्थक्य प्रसंगात् । ततः कतुरेव भवितृत्वाभ्युपगमात । क: कर्ता ? य: स्वतन्त्रः । यः स्वतन्त्रो भविता पि स एव । वही० टीका० पृ० ३३६ नैकान्तवादे सुखदुःखभोगौ न पुणपापे न च बन्धमोक्षौ । दुर्नीतिवादव्यसनासिनैवं परैविलुप्तं जगदप्यशेषम् ॥२७॥ स्याद्वाद-मंजरी० पृ० ३०१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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