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क्रियावाद-अक्रियावाद
१३१ हैं जो कर्मकाण्ड या आचार पक्ष पर अधिक बल देती हैं । आ० मल्लवादी क्रियावाद को प्रवृत्ति-मार्ग के रूप में व्याख्यायित करके यह स्पष्ट कर देते हैं कि वे सभी परम्पराएँ जो मोक्षमार्ग के रूप में क्रिया, प्रवृत्ति या कर्म पर बल (आचरण) देती हैं वे सब क्रियावादी हैं । यही कारण था कि आ० मल्लवादी ने द्वादशार-नयचक्र के प्रथम और द्वितीय अर में मीमांसकों को अपने क्रियावाद के कारण ही स्थान दिया है । ज्ञानमार्ग के स्थान पर कर्ममार्ग का चयन करने के कारण मीमांसकों को प्रथम अज्ञानवादी वर्ग में समाहित करते हुए उनको प्रथम अर में समाविष्ट कर लिया गया है। किन्तु द्रव्य और पर्याय दोनों को सत् रूप में स्वीकार करने के कारण उनको दूसरे अर में भी समाहित किया गया है।
संक्षेप में आ० मल्लवादी के अनुसार यह कहा जा सकता है कि क्रियावाद वह विचारधारा है जो आचारमीमांसा की दृष्टि से प्रवृत्ति, कर्मकाण्ड
और आचार के नियम के पालन को ही मोक्षमार्ग मानती है, जबकि तत्त्वमीमांसा की दृष्टि से वह विचारधारा जो द्रव्य की सत्ता को स्वीकार करने के साथ-साथ उसे परिणाम मानती है । दूसरे शब्दों में जो द्रव्य और क्रिया दोनों को सत् मानती हैं वह क्रियावादी परम्परा है।
परिणामवाद को स्वीकार करने का फलित यह हुआ कि जो दर्शन आत्मा को शुभाशुभ कर्मों का कर्ता और उसके फलों का भोक्ता मानते हैं वे भी क्रियावादी वर्ग में समाहित किए गए हैं। दूसरे शब्दों में आत्म-कर्तृत्व भोक्तृत्व माननेवाले दार्शनिक क्रियावादी हैं । आ० मल्लवादी ने द्वादशारनयचक्र के चतुर्थ अर में इसी रूप में क्रियावादियों का विस्तार से उल्लेख किया है जिसकी चर्चा हम निम्नलिखित ढंग से कर रहे हैं :
. आ० मल्लवादी ने आत्मा के कर्तृत्व और भोक्तृत्व की इस चर्चा को जैन कर्म-सिद्धान्त के साथ समायोजित करने का प्रयास किया है। वे लिखते हैं कि सभी प्राणी अपने स्वकर्मों से युक्त होकर ही उत्पन्न होते हैं तथा उन पूर्व निषेध कर्मों के आधार पर ही कर्म करते हैं न कि स्व इच्छानुसार क्योंकि
१. स्वकर्मयुक्त एवायं सर्वो प्युत्पद्यते नरः ।
स तथा क्रियते तेन न यथा स्वमिच्छति ॥ .
द्वादशारं नयचक्रं, पृ० ३३६
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