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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन व्याख्याप्रज्ञप्ति' (ईस्वी १-३ शती), और सूत्रकृतांग (ई. पू. ३-१ शती) में भी प्राप्त होता है।
जगत् के सभी घटनाक्रम नियत हैं इसलिए उनका कारण नियति को मानना चाहिए । जिस वस्तु को जिस समय, जिस कारण से तथा जिस परिमाण में उत्पन्न होना होता है वह वस्तु उसी समय, उसी कारण से तथा उसी परिमाण में नियत रूप से उत्पन्न होते हैं । ऐसी दशा में नियति के सिद्धान्त का युक्तिपूर्वक खण्डन कौनसा वादी कर सकता है ।
नियतिवादियों का आधार
प्रत्येक कार्य किसी नियत कारण से नियत क्रम में तथा नियत काल में ही उत्पन्न होता है । वस्तुत: इस प्रकार रखे जाने पर नियतिवाद, कालवाद, स्वभाववाद का ही संमिश्रित रूप बन जाता है और उत्तरकालीन बौद्ध तार्किकों को हम सचमुच कह पाते हैं कि प्रत्येक वस्तु देशनियत होती है, कालनियत होती है और स्वभावनियत होती है।
अनुकूल नियति के बिना मूंग भी नहीं पकती, भले ही स्वभाव आदि उपस्थित क्यों न हों, सचमुच मूंग का यह पकना अनियतरूप से तो नहीं होता । यदि नियति एक ही रूपवाली है तब नियति से उत्पन्न वस्तुएँ भी समान रूपवाली होनी चाहिएँ, और यदि नियति अनियत रूपवाली होने के कारण परस्पर असमान वस्तुओं को जन्म देनेवाली है तब प्रस्तुत वादी को यह मानने के लिए विवश होना पड़ेगा ।
शा० वा० स० स्त०२, ६१.
१. व्याख्याप्रज्ञप्ति शतक-१५. २. सूत्रकृतांगसूत्र, २-१-१२, २-६ ३. नियतेनैव रूपेण सर्वे भावा भवन्ति यत् ।
ततो नियतिजा ह्येते तत्स्वरूपानुवेधतः ॥ यद्यदैव यतो यावत्तत्तदैव ततस्तथा ।
नियत जायते, न्यायात्क एतां बाधितुं क्षम: ? वही, ६२. ४. न चर्ते नियति लोके मुद्गपक्तिरपीक्ष्यते ।
तत्स्वभावादिभावेऽपि नासावनियता यतः ॥ वही, ६३
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