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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
(२) विधिविधि अस्
नयचक्र में प्रत्येक अर के प्रारम्भ में पूर्व-पूर्व अर के सिद्धान्त का खण्डन किया जाता है तत्पश्चात् स्वमत का स्थापन । यही शैली, पूरे ग्रन्थ में आदि से लेकर अन्त तक है । यहाँ भी पूर्वोक्त विधिवाद का अर्थात् अपौरुषेय शास्त्र द्वारा क्रियोपदेश के समर्थन में अज्ञानवाद का जो आश्रय लिया गया है उसमें त्रुटि दिखाई गई है।
अज्ञानवाद का खण्डन करने के लिए यह विकल्प उठाया गया है कि यदि लोकतत्त्व पुरुषों के द्वारा अज्ञेय ही है तो फिर अज्ञानवाद के द्वारा सामान्य-विशेषादि एकान्तवादों का जो खण्डन किया गया है वह उन तत्त्वों को जानकर या बिना जाने ही, यदि उन्हें जानकर खण्डन किया गया है, यह कहा जाये तो फिर स्ववचन विरोध आता है और यदि यह कहा जाये कि बिना जाने खण्डन किया गया है तो बिना जाने खण्डन हो ही कैसे सकता ? तत्त्व को जानना यह यदि निष्फल हो तो शास्त्रों में प्रतिपादित वस्तुतत्त्व का प्रतिषेध अज्ञानवादी ने जो किया वह भी क्यों ? शास्त्र क्रिया का उपदेश करता है यह मान लिया जाय तब भी जो संसेव्य अर्थात् उपभोग्य विषय है, उनके स्वरूप का ज्ञान तो आवश्यक ही है। अन्यथा इष्टार्थ में प्रवृत्ति ही कैसे होगी ? जिस प्रकार यदि वैद्य को औषधि के रस-वीर्य-विपाकादि का ज्ञान न हो तो वह अमुक रोग में अमुक औषधि कार्यकर होगी यह नहीं कह सकता वैसे ही अमुक याग करने से स्वर्ग मिलेगा यह भी बिना जाने कैसे कहा जा सकता है ? अतएव कार्य-कारण के अतीन्द्रिय सम्बन्ध को जाननेवाला हो तब ही स्वर्गादि के साधनों का उपदेश कर सकता है, अन्यथा नहीं। अत: अज्ञानवाद का आश्रय लेने पर किसी प्रकार से अग्निहोत्रं जुयात् वाक्य विधि वाक्य रूप से सिद्ध नहीं हो सकता । इस प्रसंग में सत्कार्यवाद और असत्कार्यवाद के एकान्त में भी दोष दिए गए हैं । यहाँ पूर्वोक्त विधिवाद प्रतिपादित क्रियावाद और अज्ञानवाद का प्रतिषेध करके अद्वैतवादों की स्थपना की गई है । यहाँ विधिविधि शब्द का अर्थ चैतन्य आत्मस्वरूप में प्रवृत्ति किया गया है । इसका शाब्दिक अर्थ यह हो सकता कि विधि की विधि अर्थात् विधि स्वरूप जगत् की विधि अर्थात् विधि स्वरूप जगत् की विधि
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