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द्वादशार-नयचक्र का दार्शनिक अध्ययन
इस जैन दृष्टिकोण को आधार बनाकर आ० मल्लवादी ने अपने ग्रन्थ द्वादशार नयचक्र में शब्दार्थ सम्बन्ध को लेकर जो विभिन्न दृष्टिकोण उपलब्ध होते हैं उनकी समीक्षा की है। सर्वप्रथम उन्होंने इस मत का खण्डन किया है कि शब्द मात्र सामान्य के वाचक हैं । सामान्य की वास्तविक सत्ता नहीं है। इसलिए शब्द का तात्पर्य या शब्द का वाच्यार्थ केवल नाम है । जैनदार्शनिक मल्लवादी इस नामवाद की, जो बौद्धों का ही एक विशेष सिद्धान्त है, समीक्षा करके उसके विरोध में भर्तृहरि के मत का प्रतिपादन करते हैं । दूसरे शब्दों में शब्द मात्र नाम है इस मत का खण्डन करके शब्द अपने अर्थ का कथन करते हैं, इस प्रकार के भर्तृहरि के सिद्धान्त को स्थापित करते हैं किन्तु मल्लवादी की दृष्टि में भर्तृहरि का यह सिद्धान्त भी समुचित नहीं है । इस मत का खण्डन करने के लिए वे जैनों के ही स्थापना द्रव्यद्रव्यार्थ के रूप में शब्द के वाच्यार्थ को स्थापित करते हैं । यहाँ वे यह बताते हैं कि जो यथार्थ का अभिधान करता है वही शब्द है। किन्तु आगे चलकर वे इस मत की भी समीक्षा करके शब्द का वाच्यार्थ भाव निक्षेप को सिद्ध करते हैं। दूसरे शब्द में वे यह बताते हैं कि शब्द स्थापना और द्रव्य का भी वाचक न होकर भाव या क्रिया का वाचक होता है, इस सन्दर्भ में वे जैन-परम्परा के निक्षेप सिद्धान्त के नाम निक्षेप, स्थापना निक्षेप, द्रव्य निक्षेप और भाव निक्षेप की समीक्षा करते हैं और पुनः शब्द का वाच्यार्थ व्यक्ति है या जाति इस प्रश्न को खड़ा करते हैं । इसी प्रसंग में वे दिङ्नाग प्रणीत अपोहवाद के सिद्धान्त का अति विस्तार से खण्डन करते हैं । अपोहवाद का खण्डन करने के पश्चात् वे अन्त में पुनः शब्द के वाच्य विषय सामान्य और विशेष की चर्चा प्रारम्भ करके दोनों के समन्वय में शब्द के वाच्यार्थ को सूचित करते हैं ।
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