________________
सत् के स्वरूप की समस्या
१०३ जैनदर्शनानुसार प्रत्येक वस्तु में दो पक्ष होते हैं। एक पक्ष तो तीनों काल में शाश्वत रहता है और दूसरा पक्ष सदा परिवर्तित होता रहता है । शाश्वत पक्ष के कारण प्रत्येक वस्तु ध्रौव्यात्मक या स्थिर. रहती है और अशाश्वत पक्ष के कारण उत्पाद-व्ययात्मक कहलाती है अर्थात् अस्थिर कहलाती है । इन दो पक्षों में से किसी एक की ओर दृष्टि जाने और दूसरे पक्ष की ओर दृष्टि न जाने से वस्तु केवल स्थिररूप या केवल अस्थिररूप प्रतीत होती है। परन्त दोनों पक्षों पर दृष्टि डालने से ही वस्तु का पूर्ण और यथार्थ स्वरूप ज्ञात हो सकता है।
उत्पादादि के स्पष्ट बोध के लिए हम व्यवहार प्रसिद्ध दृष्टान्त का आधार ले सकते हैं कि एक सोने का मुकुट है । उस सोने के मुकुट को तोड़कर उससे हार बनाया जाय तब मकुट की मुकुट अवस्था नष्ट होती है और उसकी जगह पर हार रूप अवस्था उत्पन्न होती है। ऐसी स्थिति में पूर्व अवस्था नष्ट होती है और उत्तर अवस्था उत्पन्न होती है, तथापि दोनों अवस्थाओं में स्वर्ण अपने स्वरूप में स्थिर रहता है । सुवर्ण में परिवर्तन नहीं आता अर्थात् सुवर्ण अपने मूल स्वरूप का परित्याग किए बिना ही अन्य-अन्य आकारादि में परिणत होता है । तब एक आकार का नाश होता है और दूसरे आकार की उत्पत्ति होती है, इस प्रकार एक ही पदार्थ में उत्पाद व्यय और ध्रौव्यत्व सिद्ध होता है ।
इस आधार पर स्पष्ट होता है कि जैनदर्शन में सत् के स्वरूप के विषय में अपनी विशिष्ट अवधारणा है । एक ही पदार्थ में नित्य और अनित्य धर्म रहते हैं । इन विरोधी धर्मों का एक ही वस्तु में रहने से उसमें कोई विरोध नहीं आता । इस बात को समझाने के लिए तत्त्वार्थसूत्रकार ने नित्य की व्याख्या करते हुए कहा है कि अपने भाव-जाति से च्युत न होना ही नित्य है। प्रस्तुत सूत्र की व्याख्या करते हुए पं० सुखलालजी ने कहा है कि किसी
१. घटमौलिसुवर्णार्थी, नाशोत्पत्तिस्थितिष्वलम् । ___शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं, जनो याति सहेतुकम् ॥ २. तद्भावाव्ययं नित्यम् ॥ तत्त्वार्थसूत्र, ५ / ३०.
-शास्त्रवार्ता-समुच्चय, स्त० ७, २.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org