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________________ १८९ उपसंहार महत्त्वपूर्ण है । इस दृष्टि से यह ग्रन्थ न केवल जैनदर्शन का अपितु भारतीय वाङ्मय का एक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है । इस ग्रन्थ में नयों के विवेचन और प्रस्तुतीकरण की जो शैली है वह भी अभूतपूर्व है । इसके पूर्व और पश्चात् के किसी भी जैन दार्शनिक ग्रन्थ में इस शैली का अनुसरण नहीं पाया जाता है । इसका यह वैशिष्ट्य विद्वानों के सामने लाना आवश्यक था । यही सोचकर हमने इस ग्रन्थ को अपने शोध का विषय निर्धारित किया था । इस ग्रन्थ के अध्ययन-क्रम में हमने सर्वप्रथम तो यह पाया कि मुनिश्री जम्बूविजयजी के ग्रन्थ के पुनरुद्धार के श्रमसाध्य कार्य के बावजूद भी ग्रन्थ के मूल स्वरूप का पूर्णरूप से पुनर्निर्माण संभव नहीं हो पाया है । मुनिश्री ने केवल बौद्ध ग्रन्थ प्रमाणसमुच्चय और उसकी टीका के आधार पर ही इसकी पुन:रचना का कार्य किया था । हो सकता है कि तिब्बती भाषा में अनूदित अन्य बौद्ध ग्रन्थों में इसके उद्धरण हों । किन्तु न तो अभी तक तिब्बती ग्रन्थ प्रकाशित हुए हैं और न ही उनके अनुवाद प्रकाशित हुए हैं । इसलिए हम भी इस दिशा में कुछ आगे कदम नहीं रख पाए हैं । किन्तु अपेक्षा है कि भविष्य में कोई शोध अध्येता इस कमी को पूरा करेगा । जहाँ तक ग्रन्थ के वैशिष्ट्य का प्रश्न है, इसमें नयचक्र की अवधारणा के माध्यम से उस युग के सभी दार्शनिक मतों को क्रमपूर्वक प्रस्तुत एवं समीक्षित किया गया है । इसमें नय शब्द एक-एक दर्शन परम्परा का परिचायक है । आचार्य मल्लवादी ने इन नयों का नामकरण एवं वर्गीकरण भी अपने ही ढंग से विधि, नियम आदि के रूप में निम्न बारह विभागों में किया है : अर का नाम चर्चित विषय विधिः अज्ञानवाद विधि-विधिः कारणवाद विध्युभयम् ईश्वरवाद ४. विधि-नियमः कर्मवाद विधि-नियमौ द्रव्य-क्रियावाद ६. विधिनियम-विधिः भेदवाद 3 Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001955
Book TitleDvadashar Naychakra ka Darshanik Adhyayana
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJitendra B Shah
PublisherShrutratnakar Ahmedabad
Publication Year2008
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Philosophy, & Epistemology
File Size11 MB
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